शरद कटियार
उत्तर प्रदेश की राजनीति में समाजवादी पार्टी (सपा) का मुस्लिम मतदाताओं (Muslim Voters) से गहरा संबंध रहा है। यह समुदाय दशकों से सपा का मजबूत समर्थक रहा है, लेकिन हाल के वर्षों में सपा की विचारधारा और नेतृत्व शैली में कुछ बदलाव देखने को मिले हैं। विशेष रूप से 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद, पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव के हिंदू प्रतीकों और सनातन धर्म के प्रति झुकाव ने मुस्लिम समाज में असमंजस की स्थिति पैदा कर दी है।
दूसरी ओर, कांग्रेस, जो उत्तर प्रदेश में लंबे समय से अपनी खोई हुई जमीन तलाश रही है, इस स्थिति को एक नए अवसर के रूप में देख रही है। कांग्रेस नेतृत्व को उम्मीद है कि मुस्लिम और दलित मतदाता, जो कभी उसका मजबूत आधार थे, अब उसकी ओर वापस लौट सकते हैं।
समाजवादी पार्टी की राजनीति हमेशा पिछड़ों, दलितों और मुस्लिमों (पीडीए) के गठजोड़ पर केंद्रित रही है। लेकिन हाल ही में, पार्टी ने अपनी रणनीति में बदलाव किया है। अखिलेश यादव अब खुद को हर वर्ग का नेता साबित करने की कोशिश कर रहे हैं और उनके हालिया कदम इस बदलाव को स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं।
अखिलेश यादव का सनातन धर्म और हिंदू प्रतीकों की ओर झुकाव हाल के महीनों में स्पष्ट रूप से देखा गया है। उन्होंने सार्वजनिक रूप से राम, कृष्ण और परशुराम का उल्लेख किया, प्रयागराज के कुंभ मेले में न केवल जाने की इच्छा जताई बल्कि वहां जाकर संतों और शंकराचार्यों से मुलाकात भी की। इससे पहले 2012 में जब वे मुख्यमंत्री थे, तब भी कुंभ का आयोजन हुआ था, लेकिन तब उन्होंने स्नान नहीं किया था।
इतना ही नहीं, अखिलेश यादव ने सैफई महोत्सव जैसे आयोजनों में भी हिंदू धार्मिक प्रतीकों को प्रमुखता दी। यह बदलाव उनकी पारंपरिक राजनीति से एक महत्वपूर्ण विचलन है, क्योंकि सपा पहले एक धर्मनिरपेक्ष छवि बनाए रखने का प्रयास करती थी।मुस्लिम नेतृत्व की अनदेखी
सपा ने हमेशा मुस्लिम नेताओं को प्रमुखता दी थी, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनावों में पार्टी ने किसी बड़े मुस्लिम चेहरे को आगे नहीं बढ़ाया। आजम खान, जो पार्टी के सबसे प्रमुख मुस्लिम नेता थे, उन्हें भी इस बार खास तवज्जो नहीं दी गई। नतीजतन, मुस्लिम मतदाता खुद को असहज महसूस कर रहे हैं और इस असमंजस की स्थिति में हैं कि क्या सपा अब भी उनके हितों की रक्षा करेगी या नहीं।
समाजवादी पार्टी की राजनीति का आधार पिछड़ा, दलित और मुस्लिम समुदाय रहा है। लेकिन हाल ही में अखिलेश यादव ने पीडीए की नई परिभाषा दी, जिसमें उन्होंने पिछड़ों, दलितों और कमजोर अगड़ों को शामिल किया, लेकिन अल्पसंख्यकों का जिक्र नहीं किया।
यह बदलाव संकेत देता है कि सपा अब भाजपा की राजनीति से प्रेरित होकर हिंदू समाज के बड़े वर्ग को अपने पक्ष में करने का प्रयास कर रही है। पार्टी ने अब तक किसी भी अन्य जाति के बड़े नेता को आगे नहीं बढ़ाया है, बल्कि परिवारवाद की नीति को अपनाते हुए अखिलेश यादव खुद, उनकी पत्नी डिंपल यादव और बेटी अदिति यादव को ही बढ़ावा दे रहे हैं।
इस नई रणनीति का असर यह हुआ है कि सपा के पारंपरिक मुस्लिम मतदाता खुद को पार्टी से दूर महसूस कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर भी वर्ग विशेष के लोगों द्वारा अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री के रूप में बढ़ावा देने की मुहिम चलाई जा रही है, लेकिन मुस्लिम मतदाता अभी भी असमंजस की स्थिति में हैं।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का जनाधार पिछले दो दशकों में कमजोर पड़ता गया है। पार्टी को मुस्लिम और दलित समुदायों का समर्थन प्राप्त था, लेकिन समय के साथ यह समर्थन सपा और बसपा की ओर शिफ्ट हो गया।
अब, जब सपा की राजनीति में बदलाव देखा जा रहा है, कांग्रेस इसे एक मौके के रूप में देख रही है। पार्टी ने मुस्लिम समुदाय से संपर्क बढ़ाना शुरू कर दिया है और संगठन में कई मुस्लिम नेताओं को अहम पदों पर तैनात किया है। कांग्रेस की रणनीति यह है कि अगर सपा मुस्लिम मतदाताओं से दूरी बनाती है, तो वे दोबारा कांग्रेस की ओर लौट सकते हैं।
हाल ही में कांग्रेस के कई नेताओं ने मुस्लिम समाज से संवाद स्थापित किया और उनके मुद्दों को प्राथमिकता देने का आश्वासन दिया। कांग्रेस यह समझती है कि उत्तर प्रदेश में अगर वह दोबारा अपना प्रभाव बनाना चाहती है, तो उसे मुस्लिम और दलित मतदाताओं को अपने पाले में लाना होगा।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुस्लिम मतदाता करीब 19% हैं और कई सीटों पर वे चुनावी नतीजों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। 2024 के लोकसभा चुनावों में, सपा को मुस्लिम वोटों का समर्थन मिला, लेकिन यह 2019 और 2014 की तुलना में कम था।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर सपा अपनी रणनीति में बदलाव जारी रखती है और मुस्लिम मतदाताओं को प्राथमिकता नहीं देती है, तो कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों को इसका फायदा मिल सकता है।
इसके अलावा, बसपा की स्थिति पहले ही कमजोर हो चुकी है, जिससे दलित वोट बैंक भी नए समीकरण की ओर बढ़ सकता है। दलित और मुस्लिम मतदाताओं का गठबंधन उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक बड़ा कारक साबित हो सकता है।
अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि सपा की यह नई रणनीति उसे मजबूत बनाएगी या कमजोर। अगर अखिलेश यादव की हिंदू प्रतीकों की ओर बढ़ती निकटता से सपा को हिंदू मतदाताओं का समर्थन मिलता है, तो यह रणनीति सफल हो सकती है। लेकिन अगर इससे मुस्लिम वोट बैंक पूरी तरह अलग हो जाता है, तो यह पार्टी के लिए नुकसानदायक साबित हो सकता है।
आने वाले विधानसभा चुनावों में यह देखना दिलचस्प होगा कि सपा की नई नीति उसे सत्ता की ओर ले जाती है या कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल इस स्थिति का लाभ उठाकर मुस्लिम और दलित वोटों को अपनी ओर करने में सफल होते हैं।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में सपा और मुस्लिम मतदाताओं का रिश्ता लंबे समय से चला आ रहा है, लेकिन अखिलेश यादव की बदली हुई रणनीति इस समीकरण को प्रभावित कर सकती है। अगर सपा अपनी पारंपरिक राजनीति से हटकर हिंदू समाज को अधिक प्राथमिकता देती है, तो मुस्लिम मतदाता कांग्रेस या अन्य दलों की ओर रुख कर सकते हैं।
वहीं, कांग्रेस इस स्थिति को भुनाने के लिए तैयार है और मुस्लिम समाज में अपनी पैठ बनाने की कोशिश कर रही है। आगामी चुनावों में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या सपा की यह रणनीति कामयाब होती है या फिर कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल इसका फायदा उठाकर अपनी स्थिति मजबूत करने में सफल होते हैं।