लोकतंत्र की बुनियाद भरोसे पर टिकी होती है—भरोसा इस बात पर कि हर नागरिक का वोट सुरक्षित है और हर मतदाता की आवाज सुनी जाएगी। मगर जब चुनाव प्रक्रिया की पारदर्शिता पर सवाल उठने लगें, तो यह केवल एक राजनीतिक विवाद नहीं रह जाता, बल्कि लोकतांत्रिक ढांचे के लिए गहरी चिंता का विषय बन जाता है।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने हाल ही में जो आरोप लगाए हैं, वे साधारण राजनीतिक बयानबाज़ी नहीं हैं। उनका दावा है कि एक विशेष सॉफ्टवेयर के माध्यम से सुनियोजित तरीके से मतदाताओं के नाम वोटर लिस्ट से हटाए जा रहे हैं—और यह प्रक्रिया न तो स्थानीय स्तर की गलती है और न ही किसी व्यक्ति की शरारत, बल्कि संगठित और केंद्रीकृत अभियान है। यदि इस आरोप में ज़रा भी सच्चाई है, तो यह लोकतंत्र के लिए ‘हाइड्रोजन बम’ जैसा ही है।
चुनाव आयोग पर सीधा हमला करते हुए राहुल गांधी ने कहा कि मुख्य चुनाव आयुक्त उन लोगों की ढाल बने हुए हैं, जिन्होंने लोकतांत्रिक व्यवस्था को चोट पहुँचाई है। कर्नाटक के अलंद विधानसभा का उदाहरण उन्होंने पेश किया, जहाँ हजारों वोट हटाने के फर्जी आवेदन पकड़े गए। यह बात और भी गंभीर तब हो जाती है, जब आरोप है कि इसमें विशेष रूप से अल्पसंख्यक और दलित समुदायों को निशाना बनाया गया।
यह सही है कि भारतीय चुनाव आयोग की छवि लंबे समय तक निष्पक्ष और मजबूत संस्था की रही है। परंतु हाल के वर्षों में उस पर पक्षपात और ढिलाई के आरोप लगातार बढ़े हैं। सवाल यह है कि यदि विपक्ष द्वारा उठाए गए संदेहों की पारदर्शी जाँच नहीं हुई, तो जनता के मन में चुनावी प्रक्रिया के प्रति अविश्वास गहराता जाएगा।
लोकतंत्र की रक्षा केवल नारे या भाषणों से नहीं होती। इसके लिए संस्थाओं का निर्भीक और निष्पक्ष होना अनिवार्य है। यदि सॉफ्टवेयर का दुरुपयोग कर मताधिकार को प्रभावित करने की कोशिश हो रही है, तो यह न केवल चुनाव की पवित्रता पर हमला है, बल्कि संविधान और जनता की संप्रभुता का भी अपमान है।
आज ज़रूरत है कि चुनाव आयोग इस विवाद पर चुप्पी साधने के बजाय खुले मंच पर आकर तथ्यों को सामने रखे। स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच हो, तकनीकी विशेषज्ञों की भागीदारी सुनिश्चित हो और यदि दोषी पाए जाएँ तो सख्त कार्रवाई की जाए।
कांग्रेस की ओर से इसे निर्णायक लड़ाई कहा जा रहा है। दरअसल, यह केवल कांग्रेस की नहीं, बल्कि पूरे देश की लड़ाई है—उस विश्वास की लड़ाई, जो लोकतंत्र को जीवित रखता है। अगर मतदाता को यह भरोसा नहीं रहा कि उसका वोट सुरक्षित है, तो लोकतंत्र केवल नाम भर का रह जाएगा।
अब गेंद चुनाव आयोग और सरकार के पाले में है। जवाबदेही से भागना संभव नहीं है। लोकतंत्र के प्रहरी को यह साबित करना होगा कि उसका झुकाव सत्ता की ओर नहीं, बल्कि जनता की ओर है।