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Sunday, June 1, 2025

बिल्हौर की चुप्पी और कुर्मी समाज की चेतावनी — जनप्रतिनिधित्व की कसौटी पर विधायक राहुल सोनकर

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शरद कटियार

कानपुर (Kanpur) के बिल्हौर (Bilhaur) क्षेत्र में घटित एक कातिलाना हमला न केवल कानून व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है, बल्कि सत्ता की चुप्पी और समुदाय के आक्रोश के बीच राजनीतिक समीकरणों (political equations) में बड़ी हलचल की आहट भी देता है।

उत्तर प्रदेश के बिल्हौर विधानसभा (Bilhaur Assembly) क्षेत्र का खासपुर गांव इन दिनों सिर्फ एक आपराधिक वारदात को लेकर नहीं, बल्कि उससे उपजे सामाजिक और राजनीतिक तनाव के कारण चर्चाओं में है। पूर्व प्रधान अशोक कटियार पर हुए हमले ने प्रशासनिक निष्क्रियता और जनप्रतिनिधियों की मौन सहमति पर गहरे सवाल खड़े कर दिए हैं। हमला सिर्फ एक व्यक्ति पर नहीं, बल्कि उस विश्वास पर हुआ है जो वर्षों से समाज ने शासन और प्रतिनिधियों पर जताया है।

पूर्व प्रधान अशोक कटियार पर हुए हमले के पीछे ननकू नामक दबंग का नाम प्रमुखता से सामने आया है, जो इलाके में पहले से ही अपनी दबंग छवि और राजनीतिक संपर्कों के लिए बदनाम है। स्थानीय लोगों का कहना है कि ननकू कभी बहुजन समाज पार्टी के पूर्व विधायक कमलेश दिवाकर का करीबी हुआ करता था, लेकिन सत्ता परिवर्तन के बाद वह भाजपा नेताओं से जुड़ गया। यह जुड़ाव सिर्फ राजनीतिक समीकरण नहीं, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया पर असर डालने वाला गंभीर मामला बन गया है।

हमले के बावजूद पुलिस की कार्रवाई सीमित और विलंबित रही। इस निष्क्रियता को देखकर यह स्पष्ट होता है कि या तो प्रशासन राजनीतिक दबाव में है या फिर जनप्रतिनिधियों की चुप्पी को अपनी कार्रवाई की सहमति मान रहा है।

इस पूरे घटनाक्रम में सबसे ज्यादा आलोचना का सामना कर रहे हैं बिल्हौर के भाजपा विधायक राहुल सोनकर। कटियार समाज और व्यापक कुर्मी समुदाय ने चुनावों में जिस प्रकार उन्हें समर्थन दिया था, उसी अनुपात में आज वे खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। समाज के युवाओं से लेकर बुजुर्गों तक का कहना है कि विधायक की निष्क्रियता और हमलावरों के खिलाफ सख्त रुख न अपनाना, सत्ता की संलिप्तता या सहमति की ओर इशारा करता है। यह चुप्पी कहीं न कहीं राजनीतिक समझौतों का हिस्सा प्रतीत होती है। यदि किसी विधायक का रवैया समाज के एक वर्ग के लिए भेदभावपूर्ण हो जाए, तो यह न केवल सामाजिक विघटन को जन्म देता है, बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था की नींव को भी कमजोर करता है।

उत्तर प्रदेश की राजनीति में कुर्मी समाज का प्रभाव निर्विवाद है। यह समाज ना केवल संख्या में प्रभावशाली है, बल्कि चुनावों में निर्णायक भूमिका निभाता है। खासपुर जैसी घटनाएं जब इस समाज के प्रमुख व्यक्ति के साथ घटती हैं, तो उसका प्रभाव दूरगामी होता है। वर्तमान में जो नाराज़गी दिख रही है, वह अगर समय रहते नहीं सुलझाई गई, तो भाजपा को आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनावों में इसका सीधा नुकसान उठाना पड़ सकता है।

कटियार समाज, जो कुर्मी समुदाय का ही हिस्सा है, लंबे समय से भाजपा का समर्थन करता रहा है। लेकिन अब यह समर्थन विश्वासघात में बदलता दिख रहा है। समाज के लोग यह सवाल कर रहे हैं कि क्या सिर्फ वोट लेने तक ही उनकी अहमियत है? जब बात उनके सम्मान, सुरक्षा और न्याय की आती है तो सत्ता मौन क्यों हो जाती है?

आज के दौर में सोशल मीडिया ना केवल सूचनाओं के आदान-प्रदान का माध्यम है, बल्कि जनाक्रोश को स्वर देने का भी प्लेटफॉर्म बन चुका है। खासपुर कांड पर भी सोशल मीडिया में तीव्र प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं। गाँव के चौराहों से लेकर ऑनलाइन मंचों तक यह चर्चा आम हो गई है कि सत्ता का संरक्षण अपराधियों को मिल रहा है और जनप्रतिनिधि केवल औपचारिक बयानों तक सीमित हैं।

ऐसे में यह ज़रूरी हो जाता है कि सत्ता में बैठे लोग न केवल जनता के बीच जाकर संवाद करें, बल्कि निष्पक्ष और पारदर्शी कार्रवाई सुनिश्चित करें। अन्यथा यह असंतोष सिर्फ एक गांव या समाज तक सीमित नहीं रहेगा, यह पूरे क्षेत्र में राजनीतिक विस्फोट का कारण बन सकता है।

इस पूरे घटनाक्रम में स्थानीय पुलिस की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। पहले तो उन्होंने प्राथमिकी दर्ज करने में देर की, फिर कार्रवाई भी बेहद धीमी रही। अब जब मामला उच्चाधिकारियों तक पहुंचा है तब जाकर कुछ हरकत दिखाई दी है, जिसमें गुंडा एक्ट के तहत कार्रवाई के निर्देश दिए गए हैं। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या यह भी सिर्फ एक दिखावटी कवायद है? क्या सत्ताधारी नेताओं के दबाव में ही पुलिस को जागना पड़ता है?

एक लोकतांत्रिक राज्य में जब तक पुलिस स्वतन्त्र, निष्पक्ष और सक्रिय नहीं होती, तब तक कानून-व्यवस्था की रक्षा नहीं की जा सकती। और जब अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त हो, तब न्याय मिलना और भी कठिन हो जाता है। आज जिस प्रकार से विधायक राहुल सोनकर ने इस मुद्दे पर चुप्पी साध रखी है, वह न केवल उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता को दर्शाता है बल्कि उनकी जनता से दूरी को भी उजागर करता है। यदि वे इस संकट की घड़ी में अपने समाज के साथ खड़े नहीं होंगे, तो भविष्य में समाज उन्हें चुनावी मंच पर भी अकेला छोड़ देगा।

विधायक को चाहिए कि वे तत्काल इस मामले में हस्तक्षेप करें, पीड़ित पक्ष से मिलें, प्रशासन को स्पष्ट निर्देश दें और यह सुनिश्चित करें कि अपराधियों को राजनीतिक पहचान के आधार पर संरक्षण न मिले। यही एक सच्चे जनप्रतिनिधि की पहचान होती है। बिल्हौर में घटित यह घटना कोई सामान्य आपराधिक वारदात नहीं है। यह एक सामाजिक चेतावनी है — एक संदेश है सत्ता और प्रतिनिधियों के लिए कि अब जनता मौन नहीं है। यदि सत्ता न्याय के साथ खड़ी नहीं होगी, तो समाज उसे बदलने के लिए तैयार है।

कुर्मी समाज और कटियार समुदाय की आवाज़ को अनसुना करना भाजपा के लिए आने वाले चुनावों में आत्मघाती साबित हो सकता है। आज की सियासी चुप्पी कल के राजनीतिक पराजय की भूमिका बन सकती है। यह समय है जब पार्टी और प्रतिनिधियों को आत्ममंथन करना चाहिए — कि क्या वे सत्ता के लोभ में जनभावनाओं को कुचलने के रास्ते पर हैं?

राजनीति केवल भाषणों, नारों और झंडों से नहीं चलती — वह विश्वास, सम्मान और न्याय से चलती है। बिल्हौर की यह घटना भाजपा को एक अवसर दे रही है — अपने मूल्यों की ओर लौटने का, समाज के साथ खड़े होने का, और सच्चे प्रतिनिधित्व का परिचय देने का। अगर यह अवसर चूक गया, तो समाज की नाराज़गी आने वाले चुनावों में राजनीतिक परिवर्तन की रूपरेखा बन जाएगी — और यह परिवर्तन सत्ता के अहंकार को तोड़ने के लिए काफी होगा।

शरद कटियार

प्रधान संपादक, दैनिक यूथ इंडिया

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