– श्रीकृष्ण मंदिरों में पूजे जाने वाले केवल देवता ही नहीं हैं, बल्कि वह विचार हैं, दर्शन हैं, व्यवहार हैं और प्रेरणा हैं।
– श्री कृष्णा हमें सिखाते हैं कि कब झुकना है और कब खड़ा होना है, यही जीवन का सबसे कठिन निर्णय होता है।
– केवल शक्तिशाली बनना पर्याप्त नहीं, बल्कि विवेकपूर्ण और नीति-संपन्न भी होना आवश्यक है
– जब लोग कर्म की बजाय केवल परिणाम की चिंता करते हैं, तब गीता का संदेश दिशा देता है।
भारत की सांस्कृतिक चेतना में कुछ ऐसे चरित्र हैं जो युगों-युगों तक केवल पूज्य नहीं, बल्कि प्रेरणास्रोत बनकर जीवित रहते हैं। भगवान श्रीकृष्ण (Shri Krishna) ऐसे ही चरित्र हैं। वे न तो केवल एक धार्मिक कथा के पात्र हैं और न ही किसी एक पक्ष के देवता। वे सम्पूर्ण जीवन-दर्शन के वाहक हैं, जो प्रेम और संगीत से लेकर युद्ध और कूटनीति तक जीवन के हर आयाम को समेटते हैं। श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व बहुआयामी है—एक ऐसा चरित्र जो कभी गोकुल की गलियों में बांसुरी (flute)बजाते हुए नजर आता है, तो कभी कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए दिखाई देता है। बांसुरी से चक्र (chakra) तक की यह यात्रा न केवल श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व की विविधताओं को प्रकट करती है, बल्कि यह बताती है कि जीवन में संतुलन, समयानुकूलता और विवेक कितना आवश्यक है।
श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा की जेल में हुआ, उस समय जब अत्याचार, अधर्म और भय का अंधकार समाज को घेर चुका था। यह जन्म केवल एक दैवी चमत्कार नहीं था, बल्कि यह उस चेतना का प्रतीक था जो अन्याय के विरुद्ध खड़ी होती है। उनका जन्म ऐसे क्षण में हुआ जब लोगों को एक प्रकाश, एक दिशा और एक मार्गदर्शक की आवश्यकता थी। लेकिन उनका प्रारंभिक जीवन गोकुल और वृंदावन की गलियों में बीता, जहाँ उन्होंने एक सामान्य ग्वाले के रूप में जीवन जिया।
उनका बचपन लीलाओं, शरारतों और सौंदर्य से परिपूर्ण था, लेकिन वह शरारत केवल मनोरंजन नहीं थी—वह जीवन के सहजता और आनंद का प्रतीक थी। वे butter चुराते थे, पर उसका उद्देश्य मात्र भोजन नहीं, बल्कि वात्सल्य और अपनत्व का विस्तार था। उनका बाल्यकाल हमें यह सिखाता है कि जीवन केवल कर्तव्यों का भार नहीं है, उसमें सौंदर्य और खेल की भी आवश्यकता है।
श्रीकृष्ण की बांसुरी केवल एक वाद्य नहीं थी, वह प्रेम, करुणा, संगीत और आकर्षण का प्रतीक थी। उसकी ध्वनि केवल गोपियों को ही नहीं, पशु-पक्षियों, वृक्षों और समस्त प्रकृति को सम्मोहित करती थी। यह बांसुरी जीवन की उस मधुरता को दर्शाती है जो बिना किसी स्वार्थ के दूसरों को आकर्षित करती है, जोड़ती है और जीवन को सुरमय बनाती है। राधा और गोपियों के साथ उनका प्रेम एक सांसारिक संबंध नहीं, आत्मा और परमात्मा के मिलन का प्रतीक था। रास लीला कोई साधारण नृत्य नहीं, बल्कि ब्रह्म और जीव के बीच की रास—एक आध्यात्मिक लय थी, जिसमें संपूर्ण ब्रह्मांड श्रीकृष्ण की धुन पर नृत्य करता है। राधा का प्रेम त्याग, समर्पण और निःस्वार्थता की पराकाष्ठा है, जो हमें बताता है कि सच्चा प्रेम पाने के लिए नहीं, केवल देने के लिए होता है।
परंतु यह वही श्रीकृष्ण हैं जो मथुरा लौटते हैं, और कंस का वध करते हैं। यह वही बालक है जिसने गोवर्धन पर्वत उठाकर इंद्र के अभिमान को तोड़ा। यह वही गोपाल अब धर्म के रक्षक बनते हैं। यहां से उनका व्यक्तित्व एक नया रूप लेता है—अब वे केवल बांसुरी वादक नहीं, अब उनके हाथ में सुदर्शन चक्र है। यह चक्र केवल एक हथियार नहीं, धर्म की स्थापना का प्रतीक है। वह हमें यह सिखाते हैं कि जब तक प्रेम और संगीत से समस्याओं का समाधान संभव हो, तब तक कोमल बनकर जिओ। पर जब अधर्म सीमा लांघ जाए, जब शांति के सभी मार्ग विफल हो जाएं, तब चुप रहना पाप है। तब सुदर्शन चक्र उठाना ही धर्म है। यही जीवन का संतुलन है।
महाभारत में श्रीकृष्ण की भूमिका उनकी नीति, कूटनीति और बौद्धिक क्षमता का चरम रूप है। वे स्वयं युद्ध में हथियार नहीं उठाते, लेकिन सम्पूर्ण युद्ध उनकी रणनीतियों के अनुसार चलता है। वे अर्जुन के सारथी बनते हैं—केवल रथ हांकने वाले नहीं, बल्कि विचारों को दिशा देने वाले। जब अर्जुन मोह में पड़ते हैं, तब कृष्ण उन्हें गीता का उपदेश देते हैं। गीता कोई धार्मिक ग्रंथ मात्र नहीं, वह जीवन का मार्गदर्शन है। वह बताती है कि जीवन में कर्म ही प्रमुख है। फल की चिंता किए बिना कर्तव्य का पालन करना ही जीवन का सार है। यह उपदेश केवल अर्जुन के लिए नहीं था, वह समस्त मानवता के लिए था। गीता का “कर्मण्येवाधिकारस्ते” आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय था, जब अर्जुन रणभूमि में खड़ा था और कर्तव्य व संबंधों के द्वंद्व में उलझा था।
श्रीकृष्ण केवल योद्धा नहीं, विचारक भी हैं। वे केवल धर्म की स्थापना करने वाले नहीं, बल्कि समाज में संतुलन स्थापित करने वाले हैं। उनका जीवन इस बात का उदाहरण है कि किसी भी उद्देश्य की पूर्ति केवल बल से नहीं होती, बुद्धि, सहिष्णुता और नीति भी उतनी ही आवश्यक हैं। उन्होंने युधिष्ठिर को धर्म की मर्यादा का बोध कराया, अर्जुन को मोह से मुक्त किया, द्रौपदी की अस्मिता की रक्षा की, कर्ण के द्वंद्व को समझा, भीष्म की कठोर निष्ठा का सम्मान किया और शकुनि जैसे चरित्र की चालों को भी मात दी।
कृष्ण की यह भूमिका हमें यह सिखाती है कि केवल शक्तिशाली बनना पर्याप्त नहीं है, बल्कि विवेकपूर्ण और नीति-संपन्न भी होना आवश्यक है। यह विशेष रूप से आज के समय में अत्यंत प्रासंगिक है, जब सामाजिक, राजनीतिक और वैयक्तिक जीवन में संतुलन खोता जा रहा है। जब समाज में नैतिक पतन, असहिष्णुता और वैमनस्य बढ़ रहा है, तब श्रीकृष्ण के जीवन से हमें यह सीखने की आवश्यकता है कि कैसे प्रेम और युद्ध, करुणा और साहस, नीति और पराक्रम, सबका संतुलित प्रयोग किया जाए।
एक और पक्ष जिसे नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए वह है कि श्रीकृष्ण केवल युद्ध के समर्थक नहीं थे। उन्होंने महाभारत से पहले शांति के सभी प्रयास किए। उन्होंने हस्तिनापुर जाकर शांति प्रस्ताव रखा। मात्र पाँच गाँव मांगने वाले श्रीकृष्ण जब अस्वीकार किए गए, तब उन्होंने युद्ध को स्वीकार किया। यह बताता है कि श्रीकृष्ण युद्धप्रिय नहीं थे, वे युद्ध को अंतिम उपाय मानते थे। यह सोच आज के समय में भी महत्वपूर्ण है, जब अनेक बार हिंसा या संघर्ष की स्थिति में त्वरित प्रतिक्रिया दी जाती है। कृष्ण का जीवन सिखाता है कि जब तक संभव हो, संवाद और समाधान के रास्ते खोजे जाएं, पर जब धर्म और न्याय को खतरा हो, तब चुप रहना भी पाप है।
श्रीकृष्ण का जीवन हर युग के लिए प्रासंगिक है। आज जब रिश्तों में स्वार्थ की अधिकता है, तब श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता हमें निःस्वार्थ संबंधों का महत्व सिखाती है। जब राजनीति में छल, भ्रम और अल्पदर्शिता हावी हो जाती है, तब कृष्ण की दूरदर्शिता और न्यायप्रियता प्रेरणा देती है। जब समाज में साम्प्रदायिकता, जातिवाद और अलगाव बढ़ता है, तब श्रीकृष्ण का समावेशी दृष्टिकोण मार्गदर्शक बनता है। जब लोग कर्म की बजाय केवल परिणाम की चिंता करते हैं, तब गीता का संदेश दिशा देता है।
कृष्ण एक ऐसा चरित्र हैं जो जीवन के हर क्षेत्र में मार्गदर्शन करते हैं—वे युद्ध के नायक हैं, पर शांति के अग्रदूत भी; वे प्रेमी हैं, पर गुरु भी; वे कलाकार हैं, पर रणनीतिकार भी। वे हर भूमिका में पूर्ण हैं, हर परिस्थिति में संतुलित हैं। वे हमें सिखाते हैं कि जीवन एक रंगमंच है जहाँ कभी रास का नृत्य करना होता है, कभी रणभूमि की रणनीति बनानी होती है, और कभी मित्र के मोह को तोड़कर उसे कर्तव्य का बोध कराना होता है। उनकी बहुआयामिता ही उन्हें विशिष्ट बनाती है।
बांसुरी और चक्र के बीच की यह यात्रा केवल श्रीकृष्ण की नहीं, हर उस व्यक्ति की है जो जीवन में परिस्थितियों के अनुसार अपने स्वरूप को ढालने की क्षमता रखता है।
जब परिस्थितियाँ सहज हों, तो प्रेम और संगीत की भाषा बोली जाए, पर जब अन्याय सिर उठाए, तब चुप रहना अधर्म को बढ़ावा देना होता है। श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि कब झुकना है और कब खड़ा होना है—यही जीवन का सबसे कठिन निर्णय होता है। आज जब हम जन्माष्टमी जैसे पर्व मनाते हैं, तो केवल झांकियों और मंदिरों तक श्रीकृष्ण को सीमित रखते है जो की श्री कृष्णा के दर्शन के अन्याय है। श्री कृष्णा की सच्ची पूजा उनके दिखाए मार्ग पर चल कर ही संभव है।