– ईद-उल-अजहा की तैयारी और सामाजिक चुनौती
ईद-उल-अजहा (बकरीद) इस्लाम धर्म का एक पवित्र पर्व है, जो त्याग और समर्पण की भावना से जुड़ा हुआ है। इस दिन मुसलमान परंपरागत रूप से पशु की कुर्बानी देकर अल्लाह के प्रति अपनी आस्था और भक्ति प्रकट करते हैं। यह पर्व जहां एक ओर धार्मिक आस्था का प्रतीक है, वहीं दूसरी ओर नगर प्रशासन के लिए सफाई और व्यवस्था की दृष्टि से एक बड़ी जिम्मेदारी भी बन जाता है।
उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद ज़िले में इस वर्ष बकरीद से पहले एक सामाजिक-सांस्कृतिक विवाद ने जन्म लिया है। स्थानीय निकाय सफाई मजदूर संघ द्वारा जिलाधिकारी को संबोधित ज्ञापन में स्पष्ट किया गया है कि हिंदू धर्मावलंबी सफाई कर्मचारी बकरीद के पश्चात कुर्बानी के जानवरों के अवशेष नहीं उठाएंगे। इस ज्ञापन ने कई स्तरों पर प्रश्न खड़े कर दिए हैं — धार्मिक स्वतंत्रता, कर्मचारी अधिकार, सामाजिक समरसता और प्रशासनिक व्यवस्था — सभी एक नई बहस का केंद्र बन चुके हैं।
ज्ञापन में यह कहा गया है कि हर वर्ष नगर निकायों में काम करने वाले हिंदू सफाई कर्मचारियों पर कुर्बानी के अवशेष उठवाने का दबाव डाला जाता है, जो उनके धार्मिक विश्वासों के विपरीत है। संगठन ने इसे “धार्मिक भावनाओं का उल्लंघन” करार देते हुए चेतावनी दी है कि यदि जबरदस्ती की गई, तो सामूहिक हड़ताल की जाएगी। इस मांग के पीछे संगठन का यह तर्क है कि ऐसे कार्य उन्हीं कर्मचारियों से कराए जाएं जो धार्मिक रूप से इसे स्वीकार कर सकते हैं।
यह मांग केवल एक धार्मिक भावना का मामला नहीं है, बल्कि कार्य की प्रकृति और कर्मचारियों की गरिमा से भी जुड़ा हुआ है। यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या किसी व्यक्ति को उसकी धार्मिक आस्था के विरुद्ध कोई कार्य करने के लिए बाध्य किया जा सकता है? यदि नहीं, तो क्या उसके कार्य से उत्पन्न सामाजिक दायित्व को धार्मिक दृष्टिकोण से बांटकर हल किया जाना न्यायोचित है?
भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षता की स्थापना करता है, यानी राज्य किसी धर्म विशेष का न तो समर्थन करता है और न ही विरोध। परंतु जब बात आती है नगर प्रशासन की — जो राज्य का ही एक अंग है — तो उससे अपेक्षा की जाती है कि वह सभी नागरिकों को उनकी धार्मिक आस्थाओं के साथ सम्मान दे और किसी के साथ भेदभाव न करे।
हालांकि यह भी सच है कि जब धार्मिक कृत्य सार्वजनिक स्थानों पर संपन्न होते हैं, तो उनकी व्यवस्था और स्वच्छता सुनिश्चित करना राज्य और उसके कर्मचारियों की जिम्मेदारी बन जाती है। परंतु यदि उस प्रक्रिया में कर्मचारियों की धार्मिक भावनाएं आहत हो रही हों, तो यह प्रशासन का दायित्व है कि वह समावेशी समाधान तलाशे।
कुर्बानी एक धार्मिक परंपरा है, लेकिन उसका सार्वजनिक रूप में संपन्न होना उसे प्रशासनिक चुनौती में भी बदल देता है। कुर्बानी के बाद उत्पन्न होने वाले अवशेषों को उठाना, निपटाना और सफाई व्यवस्था को सुनिश्चित करना एक नीतिगत मुद्दा है। इसमें न केवल कर्मचारियों की भूमिका अहम होती है, बल्कि स्थानीय निकायों की तैयारी, संसाधन और संवेदनशीलता भी प्रमुख कारक होते हैं।
फर्रुखाबाद जैसे शहरों में जहां निकाय कर्मियों की संख्या सीमित है और कार्य का बंटवारा स्पष्ट नहीं है, वहां यह विषय और अधिक जटिल हो जाता है। यदि किसी कर्मचारी को धार्मिक कारणों से किसी कार्य से आपत्ति है, तो उसे विवेक के साथ व्यवस्थागत ढांचे में संबोधित किया जाना चाहिए, न कि विवाद बनाकर।
सफाई कर्मचारी भी संविधान द्वारा प्रदत्त सभी मौलिक अधिकारों के धारक हैं। अनुच्छेद 25 के तहत उन्हें अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता है। यदि कोई कार्य उस धार्मिक स्वतंत्रता के विरुद्ध जाता है, तो उन्हें उसका विरोध करने का अधिकार भी है। परंतु यह भी ध्यान रखना होगा कि यह अधिकार किसी दूसरे समुदाय के धार्मिक कार्यों के निष्पादन में बाधा न बने।
संगठन द्वारा उठाई गई चिंता वाजिब है कि जब कोई कर्मचारी किसी धार्मिक कारण से कार्य करने से मना करता है, तो उसे जबरदस्ती नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन इसके साथ ही यह अपेक्षा भी उचित है कि संगठन प्रशासन के साथ मिलकर ऐसा हल निकाले जिससे सामाजिक सौहार्द बना रहे और नगर की सफाई व्यवस्था बाधित न हो।
फर्रुखाबाद की यह स्थिति केवल प्रशासनिक व्यवस्था का प्रश्न नहीं है, बल्कि सामाजिक समरसता और भाईचारे की भी परीक्षा है। हमारे समाज की विविधता ही हमारी ताकत है, परंतु जब धार्मिक भावनाएं आमने-सामने आती हैं, तो संवेदनशीलता और सहिष्णुता का स्तर भी परखा जाता है।
यह जरूरी है कि इस प्रकार के मुद्दों को धर्म की कट्टर व्याख्या से न जोड़कर सहअस्तित्व और आपसी सहयोग की भावना से देखा जाए। एक ओर यदि कोई हिंदू कर्मचारी धार्मिक कारणों से कुर्बानी के अवशेष उठाने से इनकार करता है, तो दूसरी ओर मुस्लिम समुदाय को भी यह समझने की आवश्यकता है कि सार्वजनिक स्थल पर धार्मिक परंपराएं निभाने की जिम्मेदारी केवल उनकी नहीं, समाज की भी होती है।
प्रशासन की भूमिका इस पूरी घटना में सबसे निर्णायक है। उसे न केवल कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा करनी है, बल्कि शहर की स्वच्छता और कानून-व्यवस्था बनाए रखने की भी जिम्मेदारी है। इसके लिए कुछ सकारात्मक कदम उठाए जा सकते हैं। कुर्बानी के अवशेष उठाने के लिए कर्मचारियों की स्वैच्छिक सूची बनाई जाए, जिसमें केवल वे कर्मचारी शामिल हों जो स्वयं को इसके लिए उपयुक्त मानते हों।निजी एजेंसियों या अस्थायी सफाई कर्मियों को संविदा पर नियुक्त कर यह कार्य कराया जाए, जिससे स्थायी कर्मचारियों के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न न हो।नगर पालिका और निकाय अधिकारियों को धार्मिक और सांस्कृतिक मुद्दों को समझने के लिए प्रशिक्षित किया जाए ताकि वे किसी विवाद को समय रहते सुलझा सकें। त्योहार से पूर्व नागरिकों और धार्मिक संगठनों को जागरूक किया जाए कि कुर्बानी और सफाई दोनों सामूहिक जिम्मेदारियां हैं।
इस प्रकार के विषयों पर अक्सर राजनीतिक संगठनों और सामाजिक मंचों की प्रतिक्रिया तीव्र होती है, जो समाज को दो ध्रुवों में बांटने का कार्य करती है। यह न केवल असंवेदनशील है, बल्कि सामाजिक सौहार्द के लिए घातक भी हो सकता है। संगठनों को चाहिए कि वे अपने सदस्यों के अधिकारों की रक्षा करते हुए समाज में संवाद और सहयोग की भावना को बढ़ावा दें।
ज्ञापन देने वाले संगठन के पदाधिकारियों ने जिस प्रकार यह मुद्दा उठाया, वह लोकतांत्रिक ढांचे में एक वैध प्रक्रिया है, परंतु इसका समाधान संवाद और समन्वय से ही निकलेगा, न कि अड़ियल रवैये या सांप्रदायिक भाषा के प्रयोग से।
इस घटना को मीडिया में जिस प्रकार से प्रस्तुत किया जा रहा है, उसमें भी सावधानी बरतने की आवश्यकता है। खबरों की प्रस्तुति यदि उकसाने वाली, एकपक्षीय या धर्म आधारित होती है, तो यह समाज में असहिष्णुता को जन्म दे सकती है। पत्रकारिता को इस प्रकार के विषयों को तथ्यों, सामाजिक संदर्भों और समाधानोन्मुख दृष्टिकोण से प्रस्तुत करना चाहिए।
सामूहिक विवेक से निकलेगा रास्ता
फर्रुखाबाद की यह घटना पूरे देश के लिए एक सीख है कि धार्मिक परंपराएं और प्रशासनिक जिम्मेदारियां जब एक-दूसरे से टकराती हैं, तो उसका समाधान केवल संविधान और क़ानून से नहीं, बल्कि सामूहिक विवेक, संवाद और सहयोग से ही निकाला जा सकता है।
धर्म के नाम पर किसी से भी ऐसा कार्य करवाना अनुचित है जो उसकी आस्था के खिलाफ हो। लेकिन सार्वजनिक व्यवस्थाओं में भागीदारी से पीछे हटना भी उस सामाजिक अनुबंध की अवहेलना है, जो नागरिकों और राज्य के बीच बना होता है।
इसलिए यह आवश्यक है कि प्रशासन, कर्मचारी संगठन और धार्मिक समुदाय मिलकर इस विषय पर नए सिरे से नीतियां बनाएं, जो न केवल तात्कालिक समाधान दें, बल्कि दीर्घकालिक सामाजिक समरसता को भी मजबूत करें।