बिहार विधानसभा चुनाव का माहौल इन दिनों गरमाया हुआ है। पहले चरण की वोटिंग से ठीक पहले राज्य की राजनीति पूरी तरह चुनावी रंग में रंग चुकी है। सड़कों से लेकर सोशल मीडिया तक, हर जगह एक ही चर्चा है — तेजस्वी यादव के वादे और एनडीए की प्रतिक्रिया।

राजद नेता तेजस्वी यादव ने अपनी चुनावी सभाओं में जिस अंदाज में वादों की झड़ी लगाई है, उसने विपक्ष ही नहीं बल्कि पूरे राजनीतिक माहौल को झकझोर दिया है। उन्होंने चेरिया बरियारपुर की जनसभा में ऐलान किया — “मुझे सिर्फ 20 महीने दीजिए, मैं वो कर दूंगा जो उन्होंने 20 साल में नहीं किया।” यह बयान सिर्फ एक चुनावी नारा नहीं, बल्कि एक चुनौती और आत्मविश्वास का मिश्रण था। तेजस्वी यादव युवाओं के नेता के रूप में अपनी छवि को और मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं।
तेजस्वी यादव ने मंच से कई ऐसे वादे किए जो सुनने में बेहद जनप्रिय लगते हैं —
जिन परिवारों में किसी की सरकारी नौकरी नहीं है, वहां एक सदस्य को नौकरी देने का वादा।
किसानों को मुफ्त बिजली, ताकि उत्पादन लागत घटाई जा सके और खेती फिर से लाभ का व्यवसाय बन सके।
महिलाओं के लिए “माई बहन मान योजना”, जिसके तहत हर महिला को 30,000 रुपये की आर्थिक सहायता दी जाएगी।
इन घोषणाओं ने ग्रामीण इलाकों में नई उम्मीद जरूर जगाई है, खासकर युवाओं और महिलाओं के बीच। लेकिन सवाल यह है कि क्या बिहार की वित्तीय स्थिति इतनी मजबूत है कि इन योजनाओं को बिना कर्ज या घाटे के लागू किया जा सके? क्या इन वादों के पीछे कोई ठोस आर्थिक खाका या फंडिंग मॉडल है?
एनडीए ने तेजस्वी यादव के इन वादों को “झूठे सपनों की राजनीति” बताते हुए कड़ी आलोचना की है। जेडीयू प्रवक्ता राजीव रंजन ने कहा
> “तेजस्वी यादव अब चुनावी मौसम में सिर्फ हवा में बातें कर रहे हैं। बिहार की जनता जानती है कि उनके परिवार ने 15 साल के शासन में क्या किया। अब जनता झूठे वादों में नहीं फंसेगी।”
एनडीए का यह तर्क भी अपनी जगह वाजिब है कि केवल चुनावी रैलियों में घोषणाएँ करने से राज्य का विकास नहीं होता। इसके लिए जमीन पर ठोस योजनाएँ, वित्तीय प्रबंधन और राजनीतिक स्थिरता की जरूरत होती है।
बिहार की राजनीति का यह पुराना पैटर्न है — चुनाव आते ही नए-नए वादे, नई योजनाएँ और नए नारे गढ़े जाते हैं। लेकिन सत्ता मिलने के बाद वही वादे धीरे-धीरे फाइलों में दफन हो जाते हैं।
2005 से अब तक बिहार ने कई सरकारें देखी हैं, कई वादे सुने हैं, पर समस्याएँ लगभग वहीं की वहीं हैं —
बेरोज़गारी आज भी सबसे बड़ी चुनौती है।
युवाओं का पलायन जारी है।
किसानों की आमदनी अब भी लागत के अनुपात में बेहद कम है।
ऐसे में जनता के मन में यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या एक और “वादों की सरकार” वही पुराना चक्र दोहराएगी?
तेजस्वी यादव की राजनीतिक रणनीति इस बार स्पष्ट रूप से युवाओं पर केंद्रित है। बिहार के युवाओं में बेरोज़गारी दर राष्ट्रीय औसत से कहीं अधिक है। ऐसे में नौकरी देने का वादा, तेजस्वी के लिए एक मजबूत चुनावी कार्ड है।
उनका यह दावा कि “मुझे 20 महीने दीजिए” एक तरह से जनता के धैर्य और भरोसे की परीक्षा है। वे खुद को “नई सोच वाला नेता” बताकर पुराने राजनीतिक ढर्रे से अलग दिखाना चाहते हैं।
लेकिन युवाओं को सिर्फ नौकरी का सपना नहीं चाहिए — उन्हें भरोसा चाहिए कि इस बार कोई वादा अधूरा नहीं रहेगा।
एनडीए सरकार का दावा है कि उसने पिछले एक दशक में बिहार को “अंधकार से प्रकाश” की ओर बढ़ाया। सड़कों, बिजली, शिक्षा और महिलाओं की सुरक्षा के क्षेत्र में बदलाव लाने की कोशिश की गई। लेकिन यह भी सच है कि विकास का यह मॉडल अब ठहराव की स्थिति में है।
जनता का एक बड़ा तबका यह महसूस कर रहा है कि अब नई ऊर्जा और नई दिशा की जरूरत है। यही वह खाली जगह है जिसे तेजस्वी यादव भरना चाहते हैं।
अब जब दोनों पक्ष एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप में उलझे हैं, असली सवाल जनता के सामने है —
क्या बिहार फिर से वादों की राजनीति पर भरोसा करेगा?
क्या तेजस्वी यादव का “20 महीने का सपना” वास्तविकता बन सकता है?
क्या एनडीए की “विकास की गारंटी” अब भी जनता के विश्वास को बनाए रख पाएगी?
जनता को अब तय करना है कि वह भाषणों की ऊंचाई देखेगी या जमीन पर दिखे काम।
बिहार अब सिर्फ चुनावी नारों से नहीं चलेगा। जनता अब वादों की मिठास नहीं, नतीजों की सच्चाई चाहती है।
तेजस्वी यादव की बातों में जोश है, एनडीए के दावों में अनुभव — लेकिन बिहार को अब ऐसी राजनीति चाहिए जो न वादों में उलझे, न आरोपों में डूबे, बल्कि काम, जवाबदेही और पारदर्शिता की दिशा में आगे बढ़े।
नेताओं को समझना होगा कि बिहार की जनता अब “वादों की नहीं, विश्वास की राजनीति” चाहती है — और इस बार वह फैसला उसी के पक्ष में देगी जो केवल सपने नहीं, सच्चाई लेकर आएगा।

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