“अपराध की बदलती परिभाषा: अब समय है साइबर क्राइम के खिलाफ स्मार्ट सोच और स्मार्ट कानून का”

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शरद कटियार
समय के साथ अपराध की परिभाषा लगातार बदल रही है। कभी अपराध का अर्थ होता था — हत्या, लूट, अपहरण या डकैती जैसी घटनाएँ, जिनमें अपराधी और पीड़ित आमने-सामने होते थे। लेकिन अब अपराध अदृश्य हो गया है। वह हमारे घरों की दीवारों, हमारे मोबाइल फोन, हमारे बैंक खातों और यहां तक कि हमारी निजी पहचान के भीतर तक घुस चुका है। 21वीं सदी का अपराध “साइबर अपराध” है — जिसमें अपराधी की न तो कोई पहचान होती है, न सीमाएं, न चेहरा।
डिजिटल क्रांति ने देश को जोड़ा है, पर इसने अपराधियों के लिए भी नए रास्ते खोले हैं। बैंकिंग, सरकारी योजनाएं, सोशल मीडिया, ऑनलाइन खरीदारी और डिजिटल लेन-देन की सुविधा के साथ अब ठगी, डेटा चोरी, फेक न्यूज, और ऑनलाइन ब्लैकमेलिंग जैसी वारदातें आम हो चुकी हैं।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के ताजा आंकड़ों के अनुसार, पिछले पाँच वर्षों में भारत में साइबर अपराध के मामलों में 250% तक की वृद्धि दर्ज की गई है। उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तेलंगाना और दिल्ली जैसे राज्य इसमें सबसे आगे हैं।

यह चिंताजनक है कि जहां अपराधी हर दिन “स्मार्ट” होते जा रहे हैं, वहीं आम नागरिक और कानून-व्यवस्था अब भी पुराने ढर्रे पर काम कर रही है।
साइबर अपराध से निपटने के लिए केवल कानून पर्याप्त नहीं है। जरूरत है तकनीकी कौशल, डेटा सुरक्षा के ज्ञान और तुरंत प्रतिक्रिया देने वाली पुलिस प्रणाली की।
पुलिस विभाग के पास अभी भी पर्याप्त साइबर फोरेंसिक विशेषज्ञ नहीं हैं। साइबर थानों की संख्या सीमित है, और कई जगह इन थानों में प्रशिक्षित स्टाफ की भारी कमी है।
जबकि अपराधी “डीप वेब” और “डार्क नेट” जैसे प्लेटफार्मों का उपयोग कर रहे हैं, हमारी जांच एजेंसियां अब भी “कॉल डिटेल रिकॉर्ड” और “IP ट्रेसिंग” तक सीमित हैं।
हर अपराध केवल अपराधी की वजह से नहीं होता, बल्कि पीड़ित की असावधानी भी उसमें भूमिका निभाती है। बैंक OTP साझा करना, फर्जी लिंक पर क्लिक करना, अज्ञात कॉलर को निजी जानकारी देना — ये सब नागरिकों की वह लापरवाही है, जो साइबर अपराधियों को ताकत देती है।
सरकार द्वारा चलाए जा रहे “Cyber Dost”, “Cyber Awareness Portal” जैसी योजनाएं तब तक कारगर नहीं होंगी, जब तक समाज में डिजिटल साक्षरता नहीं बढ़ेगी।
भारत में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 (IT Act, 2000) को दो दशक से अधिक हो चुके हैं। तब मोबाइल इंटरनेट और सोशल मीडिया की मौजूदगी नगण्य थी। आज की परिस्थिति में यह कानून कई मायनों में अप्रासंगिक हो चुका है।
इसलिए आवश्यक है कि नया “डिजिटल इंडिया सुरक्षा अधिनियम” या इसी तरह का अपडेटेड कानून बने, जिसमें डेटा प्रोटेक्शन, फेक न्यूज, साइबर टेररिज्म, ऑनलाइन ठगी और बच्चों की ऑनलाइन सुरक्षा जैसे मुद्दों पर स्पष्ट और कठोर प्रावधान हों।
पुलिस को अब स्मार्ट पुलिसिंग मॉडल अपनाना होगा — जहां कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI), डेटा एनालिटिक्स और डिजिटल निगरानी उपकरणों का इस्तेमाल हो।
हर जिले में साइबर सेल के साथ एक इंटेलिजेंट रिस्पॉन्स यूनिट होनी चाहिए, जो 24 घंटे सक्रिय रहे और तत्काल कार्रवाई कर सके।
फर्रुखाबाद, कानपुर, लखनऊ, प्रयागराज जैसे जिलों में भी ऐसे मॉडल लागू किए जा सकते हैं, जहां पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी नागरिकों को समय-समय पर जागरूक करें।
फेक न्यूज, हेट स्पीच, फर्जी वीडियो और ट्रोलिंग आज समाज की एक बड़ी बीमारी बन चुकी है।
यह केवल डिजिटल अपराध नहीं, बल्कि सामाजिक हिंसा का डिजिटल रूप है। जब अफवाहें समाज को तोड़ने लगें, तब सरकार और समाज दोनों को मिलकर इस पर अंकुश लगाना होगा।
टेक्नोलॉजी का उपयोग अगर राष्ट्र निर्माण में हो सकता है, तो उसका दुरुपयोग भी राष्ट्र को कमजोर कर सकता है।
21वीं सदी का अपराध “बंदूक” नहीं, बल्कि “बाइट्स” से होता है। इसलिए हमें स्मार्ट नागरिक, स्मार्ट कानून, और स्मार्ट पुलिसिंग की दिशा में एक साथ आगे बढ़ना होगा।
अपराध के स्वरूप को रोकने का अर्थ केवल अपराधी को पकड़ना नहीं है, बल्कि समाज को इतना शिक्षित और सजग बनाना है कि अपराध की संभावना ही समाप्त हो जाए। “डिजिटल युग में सुरक्षा केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि हर नागरिक का कर्तव्य है।”

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