खेती कभी भारत की आत्मा कही जाती थी। गांव, किसान और खेत—यही इस देश की असली पहचान रहे हैं। लेकिन आज उसी खेती ने किसान की कमर तोड़ दी है। मोहम्मदाबाद क्षेत्र में आलू की खड़ी फसल को ट्रैक्टर से जोत दिया जाना कोई सामान्य या तात्कालिक घटना नहीं है, यह उस गहरी पीड़ा की अभिव्यक्ति है, जिसे किसान वर्षों से अपने भीतर दबाए चला आ रहा है। यह घटना सीधे-सीधे उस व्यवस्था पर सवाल खड़े करती है, जो किसान को मंचों से “अन्नदाता” कहकर सम्मान देती है, लेकिन ज़मीन पर उसे अपने हाल पर छोड़ देती है।
किसान की खेती केवल बीज बोना नहीं होती। वह महीनों तक खेत में पसीना बहाता है। बीज खरीदने से लेकर खाद, सिंचाई, दवाइयों और मजदूरी तक हर कदम पर खर्च बढ़ता जाता है। अधिकतर किसान यह सब अपनी जेब से नहीं, बल्कि कर्ज लेकर करता है—इस उम्मीद में कि फसल तैयार होने पर उसकी मेहनत की भरपाई हो जाएगी। लेकिन जब वही फसल मंडी में 100–125 रुपये के भाव पर बिकने लगती है, तो यह केवल घाटा नहीं, किसान के स्वाभिमान का अपमान होता है।
यह सवाल सिर्फ आलू का नहीं है। यह सवाल उस पूरी कृषि नीति का है, जिसमें किसान उत्पादन की पूरी जिम्मेदारी उठाता है, लेकिन मुनाफा बिचौलियों, व्यापारियों और अव्यवस्थित बाजार व्यवस्था के हिस्से चला जाता है। जब फसल बेचकर मजदूरी तक नहीं निकलती, तो किसान के सामने दो ही रास्ते बचते हैं—कर्ज का बोझ और गहराना, या पूरी तरह बर्बादी की ओर बढ़ जाना। मोहम्मदाबाद के किसान ने एक तीसरा, बेहद दर्दनाक रास्ता चुना—अपनी मेहनत को खुद ही मिट्टी में मिला देना। यह कोई आवेश में लिया गया फैसला नहीं, बल्कि व्यवस्था से हार मान लेने की मजबूरी है।
सरकारें जब भी किसान आत्महत्या के आंकड़ों पर चिंता जताती हैं, तो सवाल उठता है कि क्या वे उन कारणों पर भी उतनी ही गंभीर हैं, जो किसान को इस कगार तक पहुंचाते हैं? निर्यात नीतियों की अनिश्चितता, न्यूनतम समर्थन मूल्य की अनदेखी, मंडी व्यवस्था की विफलता और समय पर सरकारी खरीद का अभाव—इन सबका भार अंततः किसान ही क्यों ढोए? जब बाजार फेल होता है, तो नुकसान किसान का होता है; लेकिन जब मुनाफा होता है, तो किसान उसमें कहीं नजर नहीं आता।
सबसे खतरनाक संकेत यह है कि अब किसान खुलकर चेतावनी दे रहा है—“अगर दाम नहीं बढ़े, तो बाकी फसल भी जोत देंगे।” यह कोई भावनात्मक बयान नहीं, बल्कि व्यवस्था के प्रति गहरे अविश्वास का प्रमाण है। जब अन्न उगाने वाला अपनी ही फसल को बोझ समझने लगे, तब समझ लेना चाहिए कि संकट केवल आर्थिक नहीं रह गया, बल्कि सामाजिक और नैतिक भी बन चुका है।
आज जरूरत तात्कालिक राहत की है—फसलों के उचित दाम, प्रभावी सरकारी खरीद और निर्यात के रास्ते खोलने की। लेकिन इससे भी अधिक जरूरत एक ऐसी दीर्घकालिक कृषि नीति की है, जो किसान को केवल उत्पादन का साधन न माने, बल्कि उसे सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार दे।क्योंकि अगर खेत यूँ ही जोते जाते रहे,तो एक दिन सवाल फसल का नहीं रहेगा—सवाल होगा देश की भूख और भविष्य का।






