शरद कटियार
उत्तर प्रदेश की राजनीति में इन दिनों ब्राह्मण विधायकों की बैठक को लेकर जितना शोर सुनाई दे रहा है, उतनी ही कमजोर उसकी सच्चाई सामने आई है। यह पूरा मामला इस बात का उदाहरण बन गया है कि कैसे सीमित घटनाओं को बड़ा रूप देकर राजनीतिक नैरेटिव गढ़ा जाता है, और फिर उसी नैरेटिव के सहारे संगठन, नेतृत्व और समाज—तीनों को भ्रम में डाला जाता है।
जिस बैठक को सोशल मीडिया और कुछ राजनीतिक हलकों में यह कहकर प्रचारित किया गया कि भाजपा के सभी ब्राह्मण विधायक एकजुट होकर नेतृत्व के खिलाफ खड़े हो गए, वह दावा ज़मीनी हकीकत से मेल नहीं खाता। उपलब्ध तथ्यों के अनुसार, बैठक में न तो सभी ब्राह्मण विधायक मौजूद थे और न ही यह कोई आधिकारिक या अधिकृत मंच था। संख्या सीमित थी, और कई ऐसे नाम सामने आए जिन्हें बाद में लेकर सवाल खड़े हुए कि वे वास्तव में बैठक में थे भी या नहीं।
आज राजनीति का सबसे खतरनाक हथियार सोशल मीडिया बन चुका है। यहां तथ्य नहीं, धारणा बिकती है। कुछ तस्वीरें, कुछ लाइनें और कुछ मनचाहे नाम जोड़ दिए जाते हैं—और एक कहानी तैयार कर दी जाती है।
इस मामले में भी यही हुआ। बैठक को इस तरह पेश किया गया मानो भाजपा में ब्राह्मण समाज पूरी तरह असंतुष्ट हो और नेतृत्व से टकराव की स्थिति बन गई हो। यह प्रस्तुति न सिर्फ अधूरी थी, बल्कि भ्रामक भी।
नेतृत्व पर सीधा हमला: कितना उचित?
इस पूरे घटनाक्रम में भाजपा प्रदेश अध्यक्ष पंकज चौधरी को सीधे निशाने पर लिया गया। सवाल उठता है—क्या किसी अनधिकृत और सीमित बैठक के आधार पर संगठन प्रमुख पर आरोप लगाना राजनीतिक रूप से जिम्मेदार व्यवहार है?
अगर पार्टी के भीतर कोई असहमति या असंतोष है, तो उसके लिए संगठन के पास स्पष्ट और संवैधानिक रास्ते होते हैं। सोशल मीडिया पर सार्वजनिक रूप से नेतृत्व को कठघरे में खड़ा करना न तो समाधान देता है, न ही संगठन को मजबूत करता है।
यह प्रकरण एक बार फिर उस सवाल को सामने लाता है, जिससे उत्तर प्रदेश की राजनीति कभी पूरी तरह बाहर नहीं आ पाई—जाति आधारित राजनीति।
समाज की समस्याओं पर चर्चा जरूरी है, संवाद जरूरी है, लेकिन जब राजनीति केवल जाति की पहचान पर टिक जाए, तो वह विकास की राजनीति नहीं रह जाती। इससे न नीति बनती है, न भविष्य। इससे सिर्फ वोट बैंक की जोड़-तोड़ होती है और जनता के असली मुद्दे पीछे छूट जाते हैं।
फर्जी हस्ताक्षर और नाम जोड़ने के आरोप: लोकतंत्र के लिए खतरा
यदि यह आरोप सही हैं कि कुछ विधायकों के नाम या हस्ताक्षर बिना उनकी सहमति के बैठक से जोड़े गए, तो यह बेहद गंभीर मामला है।
यह सिर्फ किसी एक पार्टी का आंतरिक विवाद नहीं रह जाता, बल्कि यह लोकतांत्रिक नैतिकता पर सीधा हमला है।
राजनीति में असहमति स्वाभाविक है, लेकिन झूठे दस्तावेज़ और भ्रम फैलाना किसी भी हाल में स्वीकार्य नहीं हो सकता।
इस पूरे विवाद में सबसे ज्यादा नुकसान उस जनता का हुआ, जो उम्मीद करती है कि उसके प्रतिनिधि शिक्षा,रोजगार,महंगाई,कानून व्यवस्था,विकास जैसे मुद्दों पर बात करेंगे।
लेकिन यहां चर्चा सीमित बैठकों, वायरल पोस्ट और आरोप-प्रत्यारोप तक सिमट गई।
ब्राह्मण विधायकों की बैठक का मामला यह सिखाता है कि—
हर वायरल दावा सच नहीं होता
हर बैठक जनमत नहीं होती
और हर राजनीतिक शोर जनहित में नहीं होता।
आज जरूरत है संयम, पारदर्शिता और जिम्मेदारी की।राजनीति अगर सच से कटेगी, तो भरोसा टूटेगा।और भरोसा टूटा, तो लोकतंत्र कमजोर होगा।यूथ इंडिया का मानना है कि राजनीति में सवाल जरूरी हैं, लेकिन सवाल तथ्यों के साथ होने चाहिए—न कि भ्रम और अफवाहों के सहारे।

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