2027 की तैयारी में बसपा — क्या ‘बहनजी’ की वापसी संभव है?

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लखनऊ में आयोजित बसपा सुप्रीमो मायावती की पिछड़ा वर्ग भाईचारा संगठन की बैठक को केवल एक संगठनात्मक मीटिंग नहीं कहा जा सकता। यह दरअसल उस राजनीतिक संदेश का प्रारंभिक संकेत है, जिसके ज़रिए बसपा एक बार फिर उत्तर प्रदेश की सत्ता में वापसी का सपना बुन रही है।
बैठक में उपस्थित 250 से अधिक पदाधिकारियों का एक सुर में यह कहना — “2027 में बहनजी को पांचवीं बार मुख्यमंत्री बनाना हमारा लक्ष्य है” — यह दर्शाता है कि बसपा अब दोबारा अपने पुराने सामाजिक समीकरणों को मजबूत करने की दिशा में सक्रिय हो गई है।
पिछले कुछ वर्षों से बसपा की सबसे बड़ी चुनौती रही है — उसका पारंपरिक वोट बैंक का क्षरण। दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक वर्ग, जो कभी बसपा की रीढ़ हुआ करते थे, वे अब कई राजनीतिक दलों में बिखर चुके हैं।
मायावती की यह बैठक इसी टूटे हुए समीकरण को “पुनर्गठित करने का प्रयास” है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि पार्टी सामाजिक न्याय के अपने मूल सिद्धांत से कभी समझौता नहीं करेगी। इसका सीधा अर्थ है कि बसपा “सर्वजन हिताय” की अपनी पुरानी लाइन को छोड़कर अब वर्गीय एकजुटता पर अधिक जोर देगी।
बैठक में जो सबसे अहम निर्णय लिया गया, वह था बूथ स्तर तक संगठन को मज़बूत करने की रणनीति। मायावती को भलीभांति एहसास है कि आज की राजनीति सोशल मीडिया और नारों से नहीं, बल्कि जमीनी नेटवर्किंग से जीती जाती है।
इसलिए बसपा ने अब फिर से बामसेफ, भाईचारा समितियों और क्षेत्रीय संयोजकों के माध्यम से गांव-गांव तक पहुंच बनाने की रूपरेखा तय की है।
यह वही रणनीति है जिसने बसपा को 2007 में पूर्ण बहुमत दिलाया था।आकाश आनंद की अनुपस्थिति — संकेत या संयोग?
बैठक में बसपा के राष्ट्रीय समन्वयक आकाश आनंद की अनुपस्थिति ने राजनीतिक गलियारों में चर्चाएं तेज कर दीं।
क्या यह महज़ संयोग था या संगठनात्मक मतभेद का संकेत?
हालांकि पार्टी सूत्र इसे “कार्यभार की व्यस्तता” बताते हैं, लेकिन जानकारों का मानना है कि बसपा के अंदर नेतृत्व की दूसरी पंक्ति को लेकर असमंजस बरकरार है।
यदि पार्टी को वास्तव में 2027 की जंग में प्रभावी भूमिका निभानी है, तो नेतृत्व में स्पष्टता और सामंजस्य आवश्यक है।
वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में बसपा के सामने दोगुनी चुनौती है —
एक ओर भाजपा की मजबूत संगठनात्मक पकड़, दूसरी ओर सपा-कांग्रेस गठबंधन की सक्रिय राजनीति।
लेकिन मायावती की छवि आज भी दलित समाज में “संरक्षक” के रूप में कायम है।
यदि बसपा अपने पुराने समीकरण — दलित + पिछड़ा + अल्पसंख्यक — को फिर से जोड़ने में सफल होती है, तो 2027 में मायावती वाकई “किंगमेकर” नहीं बल्कि “किंग” बनकर लौट सकती हैं।
मायावती का यह कदम यह दर्शाता है कि बसपा अब मौन राजनीति से निकलकर मैदान की राजनीति में लौटने की तैयारी में है।
“पांचवीं बार मुख्यमंत्री” बनाने का नारा सिर्फ़ एक घोषणा नहीं, बल्कि एक राजनीतिक मिशन है —
जो तय करेगा कि क्या बसपा फिर से उत्तर प्रदेश की सत्ता में वापसी कर पाएगी,
या यह संकल्प भी 2017 और 2022 की तरह एक अधूरी कहानी बनकर रह जाएगा।

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