शरद कटियार
यह सवाल आज किसी एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि हर उस नागरिक का है जो देश को केवल नारों में नहीं, ज़मीनी हकीकत में देखना चाहता है। तस्वीर जितनी चमकदार दिखाई जा रही है, भीतर से उतनी ही खोखली होती जा रही है।
राजनीति कभी सेवा का माध्यम मानी जाती थी, आज वह संपत्ति और सत्ता की तेज़ रफ्तार लिफ्ट बन चुकी है। नेता अपना काम कर रहे हैं—राजनीति में आते ही जीवनशैली बदल जाती है, साधारण मकान महलों में बदल जाते हैं, और जनसेवा निजी वैभव में। सवाल यह नहीं कि कोई सफल क्यों हुआ, सवाल यह है कि सफलता का पैमाना ईमानदारी से हटकर वैभव क्यों बन गया?
देश की नई पीढ़ी की उंगलियाँ किताबों से ज्यादा स्क्रीन पर चल रही हैं। इंस्टाग्राम की रीलें, ट्रेंडिंग ऑडियो और कुछ सेकंड की प्रसिद्धि—यही लक्ष्य बनता जा रहा है। मेहनत, धैर्य और अध्ययन की जगह त्वरित लाइक और फॉलोअर्स ने ले ली है। यह मनोरंजन नहीं, ध्यान का अपहरण है—और इसी अपहरण में भविष्य धीरे-धीरे धुंधला हो रहा है।
धर्म, जो आत्मा का विषय था, अब प्रदर्शन और भीड़ का शोर बनता जा रहा है। जयघोष, कांवड़, भंडारे—सब कुछ है, लेकिन सवाल यह है कि करुणा, संयम और नैतिकता कहाँ हैं? आस्था यदि विवेक से अलग हो जाए, तो वह समाज को जोड़ने के बजाय बांट देती है। धर्म का उपयोग जब राजनीति और पहचान की लड़ाई में होता है, तब उसका मूल अर्थ खो जाता है।
शिक्षा, जो समान अवसर का सबसे बड़ा साधन थी, आज उत्पाद बन चुकी है। फीस बढ़ती जा रही है, गुणवत्ता का दावा घटता जा रहा है। समान शिक्षा के वादे खोखले साबित हो रहे हैं—अमीर के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर की पढ़ाई, गरीब के लिए जुगाड़। अगर शिक्षा बराबरी नहीं दे पाएगी, तो समाज बराबरी कैसे पाएगा?
जो सवाल पूछता है, वह “व्यवस्था विरोधी” ठहराया जाता है।
जो सच बोलता है, उसकी आवाज़ सीटी के शोर में दबा दी जाती है या उसे सलाखों के पीछे धकेल दिया जाता है। असहमति अब लोकतंत्र की ताकत नहीं, अपराध की तरह देखी जाने लगी है। यह चुप्पी डर से नहीं, थकान से उपजती है—और यही थकान लोकतंत्र के लिए सबसे खतरनाक है।
न्यायालयों पर भरोसा समाज की रीढ़ होता है, लेकिन जब फैसले मनमाने दिखें, और न्याय की गति व दिशा हैसियत से तय होती प्रतीत हो, तो सवाल उठते हैं।
आज यह धारणा गहराती जा रही है कि पैसा है तो न्याय मिलेगा,
पैसा और शोहरत है तो सम्मान मिलेगा।
आज रिश्ते भी सौदे की भाषा बोलने लगे हैं।पैसा है तो रिश्ते हैं,
चमक है तो न्योते हैं,
और साधारण जीवन है तो उपेक्षा।
समाज का यह मूल्य-परिवर्तन सबसे खतरनाक संकेत है, क्योंकि जब मनुष्य का मूल्य उसकी मानवता से नहीं, उसकी हैसियत से तय होने लगे, तब समाज भीतर से टूटने लगता है।तो फिर रास्ता मंथन और समर्पण का बचता है।
यह संपादकीय निराशा फैलाने के लिए नहीं, आत्ममंथन के लिए है।
देश कहीं जा रहा है—यह तय है। सवाल यह है कि हम उसे कहाँ जाने दे रहे हैं?
क्या हम सवाल पूछना छोड़ देंगे?
क्या हम शिक्षा को फिर से मूल्य बनाएंगे?
क्या धर्म को विवेक से जोड़ेंगे?
क्या न्याय को हैसियत से ऊपर रखेंगे?
देश केवल सरकार से नहीं, नागरिकों से बनता है।अगर हम चुप रहेंगे, तो शोर जीत जाएगा।अगर हम सवाल पूछेंगे, तो दिशा बदलेगी।
क्योंकि देश का भविष्य न तो महलों में लिखा जाता है,न रीलों में रिकॉर्ड होता है,वह तय होता है सच बोलने की हिम्मत और सच सुनने की क्षमता से।कहाँ जा रहा है देश?
यह सवाल आज भी हमारे सामने खड़ा है,और जवाब अब भी हमारे हाथ में है।


