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Wednesday, December 24, 2025

दहेज प्रथा के अंधकार में उम्मीद की रौशनी — बुलंदशहर के विवेक ने दिखाया नया रास्ता

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भारतीय समाज में दहेज प्रथा कोई नई समस्या नहीं है। कानूनन अपराध घोषित होने के बावजूद यह कुप्रथा आज भी असंख्य परिवारों पर आर्थिक और मानसिक बोझ बनकर भारी पड़ती है। बेटियों के विवाह का नाम लेते ही माता-पिता पर चिंताओं का पहाड़ टूट पड़ता है—कैसे दहेज के पैसे जुटाए जाएंगे, कैसे समाज की अपेक्षाएँ पूरी होंगी। ऐसी परिस्थितियों में बुलंदशहर के विवेक जैसा युवा जब परंपरा को चुनौती देता है, तो यह सिर्फ एक विवाह नहीं, बल्कि सामाजिक क्रांति की शुरुआत जैसा प्रतीत होता है।

विवेक ने मथुरा की कृष्णा के साथ विवाह संस्कार के दौरान दहेज में दिए जा रहे 51 लाख रुपये को न केवल ठुकराया, बल्कि उसे सम्मानपूर्वक माथे से लगाकर लौटा दिया। यह कर्म प्रतीकात्मक रूप से बहुत बड़ा संदेश देता है—सम्मान के साथ इनकार करना। यह समझना जरूरी है कि विवेक ने न केवल दहेज ठुकराया, बल्कि इस कुप्रथा को बढ़ावा देने वाली मानसिकता को भी चुनौती दी। विवाह सिर्फ दो व्यक्तियों का नहीं, दो परिवारों का मिलन होता है और यह मिलन तभी स्वस्थ हो सकता है जब वह समानता और सम्मान पर आधारित हो।

इतिहास गवाह है कि सामाजिक परिवर्तन व्यक्तिगत साहस से शुरू होते हैं। विवेक का यह कदम वैसा ही साहसिक कदम है। वह कहते हैं, “दहेज लेना पाप है।” यह वाक्य अपने भीतर एक व्यापक सामाजिक उद्घोष समेटे हुए है। आज के युवाओं को समझना होगा कि दहेज कोई परंपरा नहीं—बल्कि एक विषैला बोझ है जिसने अनगिनत बेटियों को अपमान, हिंसा और अत्याचार का सामना करने पर मजबूर किया है।

दोनों परिवारों का इस निर्णय के प्रति सम्मान भी विशेष उल्लेखनीय है। समाज में बदलाव तब ही होता है जब परिवार सहयोग करते हैं। यहाँ परिवारों ने न केवल विवेक—कृष्णा के निर्णय का समर्थन किया, बल्कि इसे गर्व से स्वीकार किया। इसने संदेश दिया है कि बदलाव केवल युवा पीढ़ी से नहीं, बल्कि संयुक्त सहमति से आता है।

स्थानीय लोगों द्वारा इस विवाह की सराहना बताती है कि समाज परिवर्तन चाहता है। लोग दहेज जैसी कुप्रथाओं से मुक्ति चाहते हैं, लेकिन अक्सर पहल करने का साहस नहीं जुटा पाते। विवेक और कृष्णा की शादी उस साहस का प्रतीक बनकर सामने आई है—एक ऐसा उदाहरण जिसे अपनाने से सामाजिक ढांचा बदल सकता है।

हमें यह समझना होगा कि दहेज प्रथा केवल आर्थिक लेन-देन नहीं, बल्कि एक मानसिकता का परिणाम है—जहाँ बेटियों को ‘बोझ’ और दहेज को ‘काबिलियत’ की कसौटी माना जाता है। ऐसी मानसिकता को बदलने के लिए विवेक जैसे कदमों की आवश्यकता है। समाज का हर वह व्यक्ति जो इस प्रथा के खिलाफ खड़ा होता है, वह आने वाली पीढ़ियों के लिए रास्ता साफ करता है।

आज जरूरत है इस पहल को व्यापक रूप से फैलाने की। हर गांव, हर शहर, हर परिवार में यह संदेश जाना चाहिए कि दहेजमुक्त विवाह ही सच्चा संस्कार है। यदि समाज विवेक—कृष्णा की इस मिसाल को आदर्श बनाए, तो एक समय आएगा जब दहेज शब्द सिर्फ इतिहास की किताबों में मिलेगा, समाज में नहीं।

बुलंदशहर में जली यह छोटी-सी लौ, यदि हम सब इसे आगे बढ़ाएं, तो यह एक बड़े सामाजिक परिवर्तन की मशाल बन सकती है।

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