राहुल गांधी पर गठबंधन राजनीति का बोझ अकेले चुनाव ही बनेगा सफलता का मार्ग?

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शरद कटियार
भारत की वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में एक प्रश्न गहराई से उभर रहा है—क्या राहुल गांधी जैसा सक्षम, शिक्षित, संवेदनशील और जनसरोकारों से जुड़ा नेता तब तक सत्ता के शिखर तक नहीं पहुँच पाएगा जब तक वह गठबंधन राजनीति की बेड़ियों से मुक्त होकर अकेले चुनाव नहीं लड़ता?
इस प्रश्न का उत्तर न केवल आधुनिक भारतीय राजनीति की दिशा तय करेगा, बल्कि देश के लोकतांत्रिक भविष्य को भी प्रभावित करेगा।
कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में राहुल गांधी पिछले कई वर्षों से जनता के मुद्दों—बेरोज़गारी, महंगाई, किसानों की स्थिति, संवैधानिक संस्थाओं पर दबाव और सामाजिक असमानता—को सबसे मुखर रूप से उठा रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद कांग्रेस सत्ता से दूर है। इसका मूल कारण राहुल गांधी की राजनीतिक क्षमता में कमी नहीं, बल्कि गठबंधन राजनीति में कांग्रेस की निर्भरता और उससे पैदा हुई जन-धारणाएँ हैं।
आज कई क्षेत्रीय दल अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं। उन पर भ्रष्टाचार, अपराधियों को बढ़ावा, जातिगत राजनीति और सरकारी संसाधनों के दुरुपयोग के आरोप हैं। जब कांग्रेस ऐसे दलों के साथ चुनावी समझौते करती है, तो जनता इस गठबंधन को भी उसी नजर से देखने लगती है। अक्सर आम लोग कांग्रेस के वास्तविक चरित्र और क्षेत्रीय दलों के विवादित इतिहास के बीच अंतर नहीं कर पाते।
इसका खामियाज़ा सीधे-सीधे राहुल गांधी की छवि को उठाना पड़ता है।
गांधी-नेहरू परिवार ने देश के लिए जो बलिदान दिए हैं—इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की शहादत—वह भारतीय राजनीति में दुर्लभ है। यह परिवार हमेशा आतंकवाद, विभाजनकारी राजनीति और हिंसा के खिलाफ खड़ा रहा है। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में ऐसे त्याग की मिसालें कम ही मिलती हैं। लेकिन विडंबना यह है कि आज भी राहुल गांधी पर आरोप लगाने वाले वही दल हैं, जिनका इतिहास स्वयं विवादों से भरा हुआ है।
जनता अपराध और अपराधियों से त्रस्त है। वह ऐसे नेतृत्व की तलाश में है जो साफ-सुथरा हो, साहसी हो, और जिसने निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर राजनीति को देखा हो।
राहुल गांधी इन गुणों के साथ एक स्वाभाविक विकल्प के रूप में उभरते हैं। लेकिन क्षेत्रीय दागदार दलों की संगति उस चमक को धूमिल कर देती है।
अब समय आ गया है कि कांग्रेस रणनीतिक साहस दिखाए—और राहुल गांधी खुद को गठबंधन राजनीति की सीमाओं से बाहर निकालकर देशव्यापी चुनावी संघर्ष में अकेले उतरने का फैसला करें।
यह न केवल उनकी राजनीतिक छवि को नई ऊँचाई देगा, बल्कि यह स्पष्ट संदेश भी देगा कि कांग्रेस अब समझौतों की राजनीति नहीं, सिद्धांतों की राजनीति का नेतृत्व करेगी।
अकेले चुनाव लड़ना राहुल गांधी के लिए जोखिमपूर्ण हो सकता है, लेकिन इतिहास साक्षी है कि बड़ा नेतृत्व बड़े फैसलों से ही जन्म लेता है। जब जनता उन्हें बिना किसी गठबंधन के, एक स्वतंत्र विकल्प के रूप में देखेगी—तब यह तय है कि उनका समर्थन कहीं अधिक व्यापक और मजबूत रूप में सामने आएगा।
भारत का लोकतंत्र आज एक निर्णायक नेतृत्व की प्रतीक्षा में खड़ा है।यदि राहुल गांधी यह साहसिक कदम उठाते हैं, तो निस्संदेह वे देश की सत्ता तक पहुँचने वाले उन चुनिंदा नेताओं में शामिल हो सकते हैं जो राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखते हैं।

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