जब संस्कृति राजनीति से ऊपर उठती है, तब राष्ट्र एक नई चेतना से जाग्रत होता है।
शरद कटियार
भारत के इतिहास में कुछ शब्द ऐसे हैं जो केवल बोले नहीं जाते, बल्कि महसूस किए जाते हैं। वंदे मातरम उन्हीं शब्दों में से एक है — एक ऐसा भाव जो भारत माता की माटी से लेकर हर भारतीय हृदय में समान रूप से गूंजता है। आज जब उत्तर प्रदेश के 75 जनपदों से एकता यात्राएं प्रारंभ हुई हैं,तो यह आयोजन केवल प्रशासनिक कार्यक्रम नहीं, बल्कि राष्ट्र की अस्मिता को पुनर्स्मरण कराने वाला सांस्कृतिक उत्सव बन गया है।
हर विधानसभा क्षेत्र में लगभग 10 किलोमीटर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के विचार — संपादकीय दृष्टि से विश्लेषण मे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस अवसर पर जो बातें कहीं, वे राजनीति से परे जाकर समाज के भीतर के संवाद की ओर संकेत करती हैं। उन्होंने कहा वंदे मातरम के विरोध का कोई औचित्य नहीं है। यह वही मानसिकता है जिसने कभी भारत के विभाजन को जन्म दिया था।
उनका यह कथन दरअसल एक चेतावनी है कि यदि राष्ट्रभक्ति को भी संकीर्ण विचारों की चाशनी में डुबोया जाएगा, तो वह समाज की एकता को कमजोर कर देगा। मुख्यमंत्री का यह भी कहना था कुछ लोग सरदार पटेल जैसे राष्ट्रनायकों की जयंती में शामिल नहीं होते, लेकिन जिन्नाह को सम्मान देने वाले कार्यक्रमों में अवश्य जाते हैं। संपादकीय दृष्टि से देखें तो यह कथन राजनीतिक आरोप नहीं, बल्कि नैतिक प्रश्न है क्या हम इतिहास को केवल सुविधा से याद करेंगे या सत्य के साथ खड़े रहेंगे? यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि 21वीं सदी का भारत भी राष्ट्रगीत पर बहस में उलझा हुआ दिखाई देता है। वंदे मातरम के विरोध का कोई धार्मिक या संवैधानिक आधार नहीं है, फिर भी कुछ समूह इसे अपनी राजनीतिक पहचान का प्रतीक बना लेते हैं।
लेकिन यह भूलना नहीं चाहिए कि 1905 में बंग-भंग आंदोलन से लेकर 1947 की स्वतंत्रता तक, ‘वंदे मातरम’ ने हर भारतीय के हृदय में स्वतंत्रता की लौ जलाए रखी। यह गीत न किसी समुदाय का था, न किसी मत का, यह भारत माता की वंदना थी, है और रहेगी। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा यह घोषणा कि प्रदेश के हर विद्यालय में वंदे मातरम का गायन अनिवार्य किया जाएगा, एक दूरदर्शी पहल है। संपादकीय दृष्टि से इसे केवल शासनादेश नहीं, बल्कि सांस्कृतिक नीति का हिस्सा माना जाना चाहिए। प्रदेश के लगभग 1.32 लाख स्कूलों में 1.48 करोड़ छात्र अब प्रतिदिन या साप्ताहिक रूप से इस राष्ट्रगीत का गायन करेंगे। यह कदम केवल गाने तक सीमित नहीं है — यह भावनात्मक शिक्षा का हिस्सा बनेगा। जब बच्चे वंदे मातरम गाते हैं, तो वे सिर्फ शब्द नहीं दोहराते, वे अपने भीतर देशभक्ति, अनुशासन और साझा पहचान के बीज बोते हैं। आज के दौर में राष्ट्रभक्ति भी राजनीतिक परिभाषाओं में बांट दी गई है।
कभी ‘भारत माता की जय’ पर बहस होती है, तो कभी ‘वंदे मातरम’ को लेकर विरोध। लेकिन यह विरोध वैचारिक नहीं, सुविधाजनक राजनीति का उत्पाद है। एकता यात्रा जैसे आयोजन इस मानसिकता को चुनौती देते हैं। ये यात्राएं बताती हैं कि भारत का बुनियादी स्वर किसी पार्टी या पंथ का नहीं, बल्कि संविधान, संस्कृति और समरसता का है। एक स्वर जो कालातीत हैभारत की पहचान उसके नारे से नहीं,उसकी आत्मा से होती है और वंदे मातरम उसी आत्मा की अनुगूंज है।
आज की पीढ़ी को यह समझना होगा कि वंदे मातरम का गान केवल देशप्रेम का प्रतीक नहीं, बल्कि स्वाभिमान, कर्तव्य और एकता का संस्कार है। एकता यात्रा का संदेश यही है, कि भारत को जोडऩे वाले स्वर कभी विभाजित नहीं किए जा सकते। राजनीति अपने समय के साथ बदल जाएगी, लेकिन राष्ट्रगीत की गूंज युगों तक बनी रहेगी। वंदे मातरम केवल गीत नहीं, यह भारत के हृदय की धडक़न है।






