रेलवे स्टेशन वह जगह होती है जहाँ व्यवस्था, अनुशासन और सुरक्षा सर्वोपरि माने जाते हैं।
परंतु इटावा जिले का भरथना रेलवे स्टेशन इन दिनों उन तमाम परिभाषाओं का मज़ाक उड़ा रहा है।
जहाँ कभी ट्रेन की सीटी सुनाई देती थी, वहाँ अब बंदरों के झुंडों की उछल-कूद और यात्रियों की चीखें गूंज रही हैं।
यह सिर्फ एक स्थानीय समस्या नहीं, बल्कि प्रशासनिक लापरवाही, जन-अवचेतना की कमी और सिस्टम की सुस्ती का जीवंत उदाहरण है।
हर प्लेटफार्म पर झुंड बनाकर घूम रहे बंदर अब यात्रियों से खाने का सामान, बोतलें, बैग तक छीन ले रहे हैं।
महिलाएँ और बच्चे सबसे अधिक भयभीत हैं।
प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक, कई बार बंदरों ने यात्रियों पर झपट्टा मारकर हमला भी किया है।
यह सिर्फ जानवरों का स्वाभाविक व्यवहार नहीं — बल्कि मानव उपेक्षा की प्रतिक्रिया है।
बंदरों की यह आक्रामकता उस कचरा प्रबंधन और वन्यजीव नियंत्रण तंत्र की विफलता को दर्शाती है, जिसे रेलवे और वन विभाग दोनों ने वर्षों से नज़रअंदाज़ किया है।
जब स्टेशन पर दिनभर यात्रियों के फेंके गए खाने के पैकेट, केले के छिलके और बिस्किट के रैपर इकट्ठा होते हैं, तो यह बंदरों के लिए भोजन बन जाते हैं — और यही उन्हें प्लेटफार्म पर लौटने को प्रेरित करता है।
रेल प्रशासन और वन विभाग ने इस समस्या को स्वीकार तो किया, पर हर बार वही बयान दोहराया गया — “सूचना भेजी गई है, टीम गठित की जा रही है।”
सवाल यह है कि यह टीम कब आएगी और कब तक टिकेगी?
क्योंकि अब तक की हर कार्रवाई सिर्फ “कागज़ी पकड़ अभियान” साबित हुई है।
बंदरों को पकड़ने की जिम्मेदारी वन विभाग की होती है, जबकि उनकी उपस्थिति से यात्रियों की सुरक्षा रेलवे की।
लेकिन दोनों विभागों के बीच ज़िम्मेदारी का ठीकरा एक-दूसरे पर फोड़ा जा रहा है।
इस बीच, यात्री रोज़ अपनी सुरक्षा को भगवान भरोसे छोड़कर सफर करने को मजबूर हैं।
महिलाओं और बच्चों में फैला भय केवल शारीरिक नहीं, मानसिक भी है।
हर बार जब कोई बंदर प्लेटफार्म पर झपटता है, तो यात्रियों में एक “अनियंत्रित वातावरण का भय” जन्म लेता है — यह वही डर है जो लोगों को सार्वजनिक संस्थाओं पर भरोसा खोने की ओर धकेलता है।
और यही भरोसे का क्षरण, लोकतंत्र के किसी भी ढांचे में सबसे खतरनाक स्थिति होती है।
भारतीय रेलवे अधिनियम की धारा 154 और रेलवे अधिसूचना नियमों के तहत स्टेशन परिसर में किसी भी प्रकार का पशुजन्य अवरोध या असुरक्षा की स्थिति रोकना रेलवे की प्राथमिक जिम्मेदारी है।
वहीं वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की धारा 39 के तहत बंदरों को पकड़ने, पुनर्वासित करने और सुरक्षित स्थान पर भेजने का अधिकार वन विभाग के पास है।
परंतु दोनों विभागों ने अपने-अपने कानूनी दायित्वों को सिर्फ औपचारिकता तक सीमित कर दिया है।
यह वही स्थिति है जिसे प्रशासनिक भाषा में “Non-Compliance by Coordination Failure” कहा जाता है। समाधान की दिशा मे संयुक्त अभियान: रेलवे, नगर पालिका और वन विभाग को संयुक्त रूप से एक स्थायी एंटी-मंकी टास्क फोर्स गठित करनी चाहिए।कचरा नियंत्रण: स्टेशन परिसर में खुले में फेंका गया खाद्य अपशिष्ट बंदरों के आकर्षण का मुख्य कारण है। इसके लिए स्वच्छता अनुशासन सख्ती से लागू हो।स्थायी पकड़ टीम: इटावा क्षेत्र में स्थायी वन्यजीव पकड़ यूनिट की स्थापना की जाए। जागरूकता अभियान: यात्रियों को बंदरों को खाना न देने, खुले में खाना न खाने और बच्चों को सावधान रखने के निर्देश प्लेटफार्म पर प्रसारित किए जाएं। प्रशासनिक जवाबदेही: स्टेशन मास्टर और वन क्षेत्राधिकारी को व्यक्तिगत स्तर पर जवाबदेह (Accountable) बनाया जाए।
आज भरथना स्टेशन पर जो हो रहा है, वह कल किसी बड़े स्टेशन का भी हाल हो सकता है।
जब हम प्रशासन की विफलता पर केवल आलोचना करते हैं लेकिन नागरिक के रूप में अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाते, तब यह चक्र और मजबूत होता जाता है।
बंदरों का बढ़ना केवल प्राकृतिक नहीं, मानवजनित है — हमने उन्हें स्टेशन तक बुलाया है। भरथना रेलवे स्टेशन का “मंकी टाउन” बनना सिर्फ एक खबर नहीं, बल्कि एक प्रणालीगत चेतावनी है। यह बताता है कि जब छोटे मुद्दों की अनदेखी की जाती है, तो वे किसी दिन बड़ी दुर्घटनाओं का रूप ले लेते हैं। रेल प्रशासन और वन विभाग को अब “सूचना भेजने” से आगे बढ़कर जवाबदेही तय करनी होगी। यदि आज भी यह समस्या केवल रिपोर्टों में सीमित रही, तो आने वाले कल में शायद भरथना स्टेशन को याद किया जाएगा, “जहाँ बंदर नहीं, इंसान प्रशासन से डरते थे।”
जब बंदरों ने यात्रियों से छीन ली सुरक्षा — भरथना स्टेशन की कहानी सिर्फ इटावा की नहीं, पूरे सिस्टम की है


