उत्तर प्रदेश में ‘राइट टू एजुकेशन’ योजना बन गई है मजाक, जब असली हकदार छले गए और अमीरों ने लूटी योजनाओं की मलाई
शरद कटियार
“शिक्षा हर बच्चे का मौलिक अधिकार है”, यह पंक्ति आज सिर्फ नीति दस्तावेजों और सरकारी भाषणों तक सीमित होकर रह गई है। केंद्र सरकार द्वारा शुरू की गई महत्वाकांक्षी योजना ‘राइट टू एजुकेशन’ (RTE) जिसका उद्देश्य था कि कोई भी बच्चा सिर्फ गरीबी के कारण शिक्षा से वंचित न रहे, वह उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में आज भ्रष्टाचार और लालच का शिकार बन चुकी है। गरीब बच्चों को निजी स्कूलों में निःशुल्क शिक्षा दिलाने की इस कोशिश को सफेदपोश लोगों ने छल और फरेब का हथियार बना लिया है।
आरटीई एक्ट 2009 के तहत सभी निजी स्कूलों को 25 प्रतिशत सीटें आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के बच्चों के लिए आरक्षित करनी होती हैं। इस योजना में प्रवेश पाने के लिए माता-पिता की वार्षिक आय सीमा 1.5 लाख रुपये निर्धारित की गई है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि यही आय प्रमाण पत्र अब इस घोटाले की जड़ बन गया है।
यूथ इंडिया की पड़ताल से जो जानकारी सामने आई है, वह स्तब्ध करने वाली है। राज्य के कई जिलों में राजस्व विभाग के कर्मचारी — लेखपाल, कानूनगो और तहसीलदार — बाकायदा मोटी रकम लेकर फर्जी आय प्रमाण पत्र तैयार कर रहे हैं। इन प्रमाण पत्रों की सत्यता जांचने की जिम्मेदारी जिन अधिकारियों पर थी, उन्होंने या तो जानबूझकर आंख मूंद ली या इस भ्रष्टाचार में शामिल हो गए।
यह सिर्फ कुछ अपवादों की बात नहीं है। अनुमान के मुताबिक लखनऊ, कानपुर, आगरा, प्रयागराज, वाराणसी और मेरठ जैसे प्रमुख शहरों में हर साल लगभग 20,000 फर्जी आवेदन स्वीकृत हो रहे हैं। एक तरफ जहां एक जरूरतमंद मां तीन साल से लगातार आवेदन करने के बाद भी अपने बच्चे का दाखिला नहीं करा पा रही, वहीं दूसरी ओर महंगी कारों में घूमने वाले लोग “गरीब” बनकर आरटीई का लाभ उठा रहे हैं। यह दृश्य न सिर्फ झकझोरने वाला है, बल्कि हमारी सामाजिक व्यवस्था के खोखलेपन को भी उजागर करता है।
इस गड़बड़ी का एक और पहलू है — निजी स्कूलों का लालच। उन्हें सरकार से मिलने वाली फीस प्रतिपूर्ति तो चाहिए, लेकिन असली गरीब बच्चों को दाखिला देने से परहेज़ है। उन्हें ऐसे अभिभावक पसंद हैं जो “गरीबी” की आड़ में डोनेशन भी दे सकते हैं और बच्चों का प्रदर्शन भी अच्छा हो। कई स्कूलों ने जानबूझकर अमीर परिवारों के बच्चों को दाखिला दिया और आरटीई की सीटों पर दिखाकर सरकारी फंड हड़प लिया।
यह स्थिति तब और विकट हो जाती है जब स्कूल फर्जी दस्तावेजों को बगैर किसी वेरिफिकेशन के स्वीकार कर लेते हैं। शिक्षा को सेवा के बजाय व्यवसाय बना देने वाली मानसिकता ने इस योजना की आत्मा को ही मार दिया है।
बेसिक शिक्षा राज्य मंत्री संदीप सिंह जब इस फर्जीवाड़े की जानकारी से अवगत हुए, तो उन्होंने हैरानी जताते हुए जांच की बात कही। उन्होंने स्पष्ट किया कि समान शिक्षा व्यवस्था सरकार की प्राथमिकता है और सभी आय प्रमाण पत्रों की जांच कराई जाएगी।
अब सवाल यह उठता है कि यह घोटाला एक-दो वर्षों की उपज नहीं है। यह सिलसिला वर्षों से जारी है, जिसमें राजस्व अधिकारी, शिक्षा विभाग और स्कूल संचालक एक सुनियोजित तंत्र बनाकर काम कर रहे हैं। इस नेटवर्क की पकड़ इतनी मजबूत है कि असली पात्र योजना से बाहर और नकली पात्र अंदर हैं।
बढ़ती शिकायतों के बाद अब केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने उत्तर प्रदेश सरकार से रिपोर्ट तलब की है। मंत्रालय के अनुसार, योजना के तहत हो रहे फर्जीवाड़े की शिकायतें लगातार आ रही थीं और अब बड़े पैमाने पर जांच होगी। यह उम्मीद की किरण जरूर है, लेकिन अगर यह जांच भी अन्य नौकरशाही फाइलों की तरह ठंडे बस्ते में चली गई तो यह एक और विश्वासघात होगा देश के गरीबों के साथ।
यदि केंद्र और राज्य सरकार वास्तव में ईमानदार हैं, तो उन्हें इस घोटाले में शामिल हर स्तर के कर्मचारियों की जांच कराकर उनके खिलाफ कठोर कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए। सिर्फ दोषियों के खिलाफ एफआईआर ही नहीं, बल्कि स्कूलों की मान्यता रद्द करने और लाभार्थियों से फर्जी रूप से ली गई राशि की वसूली जैसे कदम भी जरूरी हैं।
यह पूरी घटना हमें एक गहरी सच्चाई से रूबरू कराती है — योजनाएं चाहे जितनी भी बेहतरीन हों, अगर उन्हें लागू करने वाला तंत्र भ्रष्ट है, तो वे जनकल्याण का साधन नहीं बन सकतीं। आरटीई जैसी योजना सिर्फ एक ऑनलाइन फॉर्म नहीं है, यह उन लाखों बच्चों की उम्मीद है जो जीवन की दौड़ में पीछे हैं और जिन्हें शिक्षा ही एक बेहतर भविष्य दे सकती है।
शिक्षा को अगर हम सचमुच लोकतंत्र का आधार मानते हैं, तो उसे महज योजनाओं के आंकड़ों में नहीं, ज़मीन पर हकीकत में उतारना होगा। और इसके लिए जरूरी है पारदर्शिता, जवाबदेही और ईमानदारी।
एक सवाल हम सब से भी है। क्या हमने कभी खुद से पूछा कि क्या हमारे आसपास कोई ऐसा बच्चा है जिसे इस योजना का लाभ मिलना चाहिए था लेकिन नहीं मिला? क्या हमने कभी इन गड़बड़ियों पर आवाज उठाई? अफसोस की बात यह है कि भ्रष्टाचार से लड़ने की बजाय, समाज का एक बड़ा वर्ग इसका हिस्सा बन चुका है।
यह जिम्मेदारी केवल सरकार की नहीं, समाज की भी है कि वह ऐसे फर्जी लाभार्थियों को उजागर करे, जरूरतमंदों को योजना के प्रति जागरूक करे और प्रशासन को मजबूर करे कि वह अपनी जिम्मेदारी निभाए।
आज भी अगर सरकार ईमानदारी से प्रयास करे, तो इस योजना को अपने मूल उद्देश्य पर वापस लाया जा सकता है। सभी जिलों में विशेष जांच कमेटियां बनाकर, तकनीकी सत्यापन प्रणाली को मजबूत करके, और दोषियों को सार्वजनिक रूप से सजा देकर यह साबित किया जा सकता है कि शासन व्यवस्था अभी भी गरीबों के लिए खड़ी है।
यदि ऐसा नहीं होता, तो यह घोटाला भी उन सैकड़ों योजनाओं की तरह हो जाएगा, जिनका जिक्र तो होता है, लेकिन जिनकी आत्मा को तंत्र पहले ही मार चुका होता है।
‘राइट टू एजुकेशन’ सिर्फ एक कानून नहीं, यह संविधान द्वारा दिए गए शिक्षा के अधिकार की जीवंत अभिव्यक्ति है। इसे बचाना हम सबका नैतिक, सामाजिक और संवैधानिक कर्तव्य है।


