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Saturday, June 21, 2025

समीक्षा: ‘लोकदृष्टि’ – एक जीवंत वैचारिक ग्रंथ

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लेखक: डॉ. प्रभात कुमार अवस्थी

समीक्षक: [शरद कटियार ]

डॉ. प्रभात कुमार अवस्थी की पुस्तक ‘लोकदृष्टि’ केवल एक साहित्यिक कृति नहीं, बल्कि भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक और वैचारिक ताने-बाने का गहन विवेचन है। यह कृति समकालीन भारत की चुनौतियों, संभावनाओं और बौद्धिक उत्तरदायित्वों को रेखांकित करते हुए एक ऐसी विचारधारा प्रस्तुत करती है, जो लोक और राष्ट्र को एक अविभाज्य इकाई के रूप में देखती है।

लेखक ‘लोक’ को केवल ग्रामीण जीवन का प्रतिनिधि नहीं मानते, बल्कि वह उसे भारतीय समाज की सामूहिक आत्मा बताते हैं। ‘लोकदृष्टि’ एक ऐसी वैचारिक भूमि है, जहाँ सबसे अंतिम व्यक्ति की पीड़ा भी महत्वपूर्ण है। यह समावेशी दृष्टिकोण वर्तमान समय में समाज को जोड़ने वाली एक आवश्यक कड़ी बनकर सामने आता है।

डॉ. अवस्थी का राष्ट्रवाद न तो संकुचित है और न ही कट्टर। यह तुलसी, कबीर, गांधी, अंबेडकर और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे महान विचारकों से प्रेरित एक समन्वयवादी राष्ट्रवाद है। यह दृष्टिकोण विविधता को सम्मान देता है और लोकतंत्र की आत्मा को ‘लोक’ में स्थापित करता है।

पुस्तक में दलित विमर्श को केवल संघर्ष तक सीमित नहीं किया गया, बल्कि उसे गरिमा और रचनात्मकता की भूमि पर प्रतिष्ठित किया गया है। वहीं स्त्री को केवल पूजन की नहीं, बल्कि समाज की सह-निर्माता की भूमिका में प्रस्तुत किया गया है।

हिंदी और लोकभाषाओं के महत्व पर लेखक विशेष बल देते हैं। उनका मानना है कि जब तक हम अपनी भाषा में नहीं सोचेंगे, तब तक अपनी सांस्कृतिक पहचान अधूरी रहेगी। लेखक की भाषा में आत्मीयता, करुणा और विचारशीलता की त्रिवेणी स्पष्ट दिखाई देती है।

लोकतंत्र, युवा और अध्यात्म

‘लोकदृष्टि’ में लोकतंत्र को केवल एक प्रणाली नहीं, बल्कि ‘लोकधर्म’ के रूप में देखा गया है – जहाँ सेवा और सहभागिता मूल हैं। लेखक युवाओं को केवल तकनीकी संसाधन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्निर्माता मानते हैं। अध्यात्म को उन्होंने करुणा, सेवा और आत्म-चिंतन की संज्ञा दी है।

‘लोकदृष्टि’ एक ऐसी पुस्तक है, जो न केवल साहित्यिक सौंदर्य को प्रस्तुत करती है, बल्कि सामाजिक दृष्टि, दार्शनिक सोच और मानवीय संवेदना को एक मंच पर लाकर खड़ा करती है। यह कृति हमें बताती है कि सच्चा साहित्य वही है जो लोक से जुड़े, राष्ट्र की आत्मा को समझे, और समाज को जोड़ने का कार्य करे।

यह ग्रंथ निश्चित ही हिंदी साहित्य की समकालीन धारा में एक प्रकाशस्तंभ के रूप में स्थापित होता है।

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