सूर्या अग्निहोत्री
(यूथ इंडिया)
भारत का लोकतंत्र विविधता का प्रतीक है। यहाँ अलग-अलग भाषाएँ, संस्कृतियाँ और विचारधाराएँ मिलकर एकता का निर्माण करती हैं। चुनाव इस लोकतंत्र की आत्मा हैं, क्योंकि इन्हीं से जनता अपनी सरकार चुनती है। लेकिन चुनाव परिणामों के बाद बनने वाली गठबंधन सरकारों ने लोकतंत्र की मजबूती पर कई प्रश्नचिह्न खड़े किए हैं।
अगर हम शिक्षा जगत को देखें तो वहाँ स्पष्टता और निष्पक्षता सर्वोपरि है। परीक्षा में सफलता केवल उसी को मिलती है जिसने सबसे अधिक मेहनत की हो और सर्वाधिक अंक प्राप्त किए हों। यहाँ किसी तरह के “गठबंधन” की गुंजाइश नहीं होती। एक छात्र दूसरे छात्रों के साथ मिलकर यह दावा नहीं कर सकता कि “हम सब मिलकर टॉपर हैं।”
इसके विपरीत राजनीति में अक्सर ऐसा होता है कि कोई भी दल स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं कर पाता। नतीजा यह कि सत्ता तक पहुँचने के लिए जोड़-तोड़ की राजनीति शुरू हो जाती है। बड़े दल छोटे दलों को साथ लेकर बहुमत का आंकड़ा जुटाते हैं और सरकार बना लेते हैं। यह ठीक वैसा ही है जैसे परीक्षा में दूसरे-तीसरे स्थान के छात्र मिलकर खुद को पहला स्थान घोषित कर दें।
गठबंधन की राजनीति का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि यह जनता के वास्तविक जनादेश का अपमान करती है। जनता जिस दल को सबसे अधिक सीटें देती है, वही दल असल में सबसे मजबूत होता है। लेकिन यदि वह पूर्ण बहुमत से पीछे रह जाए तो छोटे दल मिलकर किसी और को सत्ता सौंप सकते हैं।
दूसरा बड़ा खतरा अस्थिरता का है। गठबंधन सरकारें लंबे समय तक टिक नहीं पातीं। छोटे दल अक्सर अपनी शर्तें थोपते हैं और समर्थन वापस लेने की धमकी देते रहते हैं। इससे प्रशासनिक मशीनरी पंगु हो जाती है और देश की प्रगति पर नकारात्मक असर पड़ता है।
तीसरी समस्या भ्रष्टाचार और सौदेबाज़ी की है। गठबंधन के लिए मंत्रीपद और संसाधनों की अदला-बदली होती है। ऐसे में नीतियाँ और फैसले जनता के हित में नहीं बल्कि गठबंधन को बचाने के लिए किए जाते हैं। यह लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करता है।
यहाँ शिक्षा से राजनीति को सीखने की ज़रूरत है। शिक्षा में सफलता केवल योग्यता और मेहनत के आधार पर तय होती है। राजनीति में भी सरकार बनाने का अधिकार केवल उसी दल को होना चाहिए जिसे सबसे अधिक जनसमर्थन मिला हो। यह जनादेश का सच्चा सम्मान होगा।
कई देशों में इस दिशा में सफल प्रयोग हुए हैं। अमेरिका में दो-दलीय प्रणाली है, जहाँ गठबंधन लगभग असंभव है। ब्रिटेन में भी प्रायः एक ही दल बहुमत हासिल कर लेता है। भारत जैसे बहुदलीय लोकतंत्र में यह चुनौती बड़ी है, परंतु असंभव नहीं।
एक समाधान “रन-ऑफ चुनाव” हो सकता है। इसमें यदि पहले चरण में कोई दल बहुमत न पाए तो दूसरे चरण में केवल शीर्ष दो दलों के बीच सीधी टक्कर हो। इससे जनता को स्पष्ट विकल्प मिलेगा और सरकार स्थिर बनेगी।
दूसरा उपाय यह है कि चुनाव के बाद गठबंधन की अनुमति न हो। केवल चुनाव पूर्व गठबंधन मान्य हों। इससे जनता पहले से जान सकेगी कि किन दलों की साझेदारी से सरकार बनेगी और निर्णय कितने स्थिर होंगे।
निश्चित ही भारत जैसा विविध देश क्षेत्रीय और छोटे दलों की आवाज़ को अनदेखा नहीं कर सकता। लेकिन यह प्रतिनिधित्व जोड़-तोड़ की राजनीति का माध्यम नहीं होना चाहिए। इन्हें संसद और विधानसभाओं में अपनी बात रखने का पूरा हक़ मिले, मगर सरकार गठन की प्रक्रिया पारदर्शी और जनादेश के अनुरूप हो।
निष्कर्ष यही है कि यदि शिक्षा जैसी व्यवस्था में केवल योग्यता का सम्मान है तो राजनीति में भी केवल जनमत और स्पष्ट बहुमत को ही प्राथमिकता मिलनी चाहिए। गठबंधन की राजनीति लोकतंत्र को कमजोर करती है और जनता के विश्वास को ठेस पहुँचाती है। अब समय आ गया है कि हम इस पर गहराई से विचार करें और राजनीति को शिक्षा की तरह निष्पक्ष, पारदर्शी और जनहितकारी बनाएँ।