प्रशान्त कटियार
एक बार फिर एक मासूम बच्ची की चीखें खेतों, घरों और दीवारों के पीछे गुम हो गईं। 13 वर्षीय किशोरी की लाश भूसे के ढेर में मिलना सिर्फ एक आपराधिक घटना नहीं, बल्कि हमारी सामाजिक व्यवस्था, महिला सुरक्षा, और प्रशासनिक सक्रियता पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न है।
क्यों नहीं बच पाई एक बेटी?
सोमवार सुबह घर से दाल लेने निकली मासूम किशोरी तीन दिन तक लापता रही और बुधवार को गांव के ही एक बाड़े में भूसे के ढेर के नीचे से उसका शव बरामद होता है। सवाल यह है कि क्या हमारे गांव, मोहल्ले, और समाज अब बच्चियों के लिए सुरक्षित नहीं रहे?
जहाँ एक ओर सरकारें ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के नारे गढ़ती हैं, वहीं दूसरी ओर गांव की गलियों में ‘बेटी को छुपाकर बचाने’ की नौबत आ रही है। किशोरी का शव क्षत-विक्षत हालत में मिलना यह दर्शाता है कि उसके साथ कुछ बेहद भयावह हुआ – संभवतः दुष्कर्म की कोशिश और फिर हत्या।
जब एक किशोरी को बहाने से कमरे में ले जाया जाता है, जब दीवार पर खून के निशान होते हैं, जब CCTV कैमरे बंद कर दिए जाते हैं और घर के अंदर गड्ढा खोदा जाता है – तो यह साफ है कि यह घटना किसी मानसिक विकृति नहीं, बल्कि सोची-समझी साजिश थी।
लेकिन सवाल यह भी है कि इस दौरान समाज चुप क्यों रहा?
क्या किसी ने देखा नहीं? क्या किसी ने सुना नहीं? या फिर सबने आंखें मूंद लीं?
मामले में हिरासत में लिए गए दो अघोरी बाबा – रोमिल और मणिलाल – समाज में व्याप्त अंधविश्वास की बानगी हैं। ऐसे तत्व अक्सर महिलाओं और बच्चियों को बलि या तांत्रिक अनुष्ठानों के नाम पर शिकार बनाते हैं। यह न सिर्फ अंधश्रद्धा का मामला है, बल्कि कानून और संविधान की खुलेआम धज्जी उड़ाना है।
घटना के तीन दिन बाद शव मिलना और फिर उच्चाधिकारियों का दौरा – यह क्रम अब आम हो चला है। हर मामले में यही होता है – पहले गुमशुदगी की रिपोर्ट, फिर लापरवाही, फिर लाश मिलना, और फिर “जांच जारी है” का रटा-रटाया बयान।
एसपी आरती सिंह और सीओ अजय वर्मा के मौके पर पहुंचने और जांच तेज़ करने का दावा सराहनीय है, लेकिन यह तभी मायने रखेगा जब नतीजा सामने आएगा। लोगों की मांग है कि दोषियों को सख्त सजा मिले – केवल FIR और बयानबाज़ी से काम नहीं चलेगा।
मृतका के परिजनों की आंखों में जो खालीपन है, वह अब भर नहीं सकता। माँ की गोद सूनी हो गई, पिता की उम्मीद टूट गई और भाई-बहनों की मुस्कान छिन गई। यह सिर्फ एक बच्ची की हत्या नहीं – यह एक पूरे परिवार का सामाजिक, मानसिक और आत्मिक कत्ल है।
कानून को तेज़ और निर्दयी बनना होगा। ऐसे अपराधियों को न सिर्फ सज़ा मिले, बल्कि समाज के सामने उदाहरण भी बनें। गांव-गांव में महिला सुरक्षा तंत्र बनाना होगा। पंचायत, विद्यालय और स्वयंसेवी संस्थाएं मिलकर बच्चियों की सुरक्षा सुनिश्चित करें।
अंधविश्वास और तांत्रिक गतिविधियों पर नकेल कसनी होगी। यह 21वीं सदी का भारत है – यहाँ अंधकार के नाम पर किसी बेटी की बलि नहीं दी जा सकती।
CCTV, प्रकाश व्यवस्था और स्थानीय निगरानी समिति जैसी व्यवस्थाएं अनिवार्य होनी चाहिए।
इस घटना ने न सिर्फ अमृतपुर को, बल्कि पूरे प्रदेश को हिला कर रख दिया है। यदि अब भी हम नहीं जागे, तो अगली मासूम किसकी होगी – यह कहना मुश्किल नहीं, बस शर्मनाक होगा।
लेखक,दैनिक यूथ इंडिया के डिप्टी एडिटर हैं।