प्रशांत कटियार
उत्तर भारत के प्रमुख आलू उत्पादक ज़िलों फर्रुखाबाद, आगरा, कन्नौज, कानपुर सहित पूरे आलू बेल्ट में इन दिनों आलू किसान खून के आंसू रोने को मजबूर हैं। जिन खेतों में कभी उम्मीदों की फसल लहलहाती थी, वहां अब निराशा का कुहासा पसरा है। किसान अपनी मेहनत का मोल पाने के लिए इधर-उधर भटक रहा है न सरकार के पास राहत की कोई ठोस योजना है, न बाजार में भाव की कोई गारंटी।फरवरी मार्च में जब आलू खुदाई शुरू हुई थी, तब किसानों के चेहरे पर मुस्कान थी। हाइलैंड चिपसोना किस्म के आलू करीब 800 रूपये प्रति पैकेट (53 किलो) तक बिके और हाइब्रिड किस्मों ने भी 600 रूपये प्रति पैकेट तक का भाव छुआ।
किसान भविष्य की योजनाओं में डूबे थे बच्चों की फीस, नई बुवाई, और खेत की अगली तैयारी।लेकिन अब जुलाई के अंत में हालात बिलकुल बदल चुके हैं। वही हाइलैंड चिपसोना 300 रूपये प्रति पैकेट तक लुढ़क गया है और हाइब्रिड आलू तो कोल्ड स्टोरेज में धूल फांक रहा है। खरीदारों ने बाजार से मुंह मोड़ लिया है।सबसे गंभीर संकट कोल्ड स्टोरेज को लेकर है। अभी तक कुल भरे गए आलू में से महज़ 15 से 20 प्रतिशत स्टॉक ही निकला है। कोल्ड में जगह भरी पड़ी है, और व्यापारी कोई रुचि नहीं दिखा रहे। किसान दोराहे पर खड़ा है क्या करे,और बुवाई की बात करें तो सितंबर माह में आलू की अगली फसल की बुआई शुरू होनी है, लेकिन उससे पहले ही किसान की कमर टूट चुकी है। खाद की कीमतें आसमान छू रही हैं, और बाजार में उपलब्धता भी बाधित है। एनपीके, डीएपी और यूरिया जैसे जरूरी उर्वरक न तो समय से मिल रहे हैं, न उचित दाम पर।
किसान लंबी कतारों में खड़े होकर भी खाली हाथ लौट रहा है।इस त्रासदी भरे हालात में सरकार की चुप्पी बेहद चिंताजनक है। ज़रूरत है कि तत्काल मूल्य समर्थन योजना लागू की जाए,कोल्ड स्टोरेज पर सब्सिडी दी जाए,खाद की कालाबाजारी पर कठोर कार्रवाई हो,न्यूनतम समर्थन मूल्य पर आलू खरीद सुनिश्चित की जाए,निर्यात को प्रोत्साहित किया जाए, जिससे बाजार को राहत मिले,यह बात केवल आलू की नहीं है यह बात किसान की अस्मिता, उसकी जीविका और आत्मसम्मान की है।
जब एक ओर सरकार आत्मनिर्भर भारत का सपना दिखाती है और दूसरी ओर अन्नदाता आत्महत्या की कगार पर खड़ा हो, तो यह विकास नहीं, विरोधाभास बन जाता है।खेती सिर्फ एक पेशा नहीं, एक भावना है। जब भावना मरती है, तो सिर्फ किसान ही नहीं, पूरा राष्ट्र खोखला होता है।
अगर अब भी हम नहीं जागे, तो खेत सूखेंगे नहीं रोएंगे। और उस रोने की गूंज बहुत दूर तक जाएगी। अब वक्त है नीतियों को कागज से खेत तक लाने का क्योंकि ये सिर्फ आलू की बात नहीं, भारत के भविष्य की बात है।