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Monday, August 18, 2025

वोट बैंक की सियासी पिच: यादव-पंडितों को लड़ाने की साजिश?

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– 2027 की लड़ाई, ‘जाति फैक्टर’ ने ली अंगड़ाई
– यादव Vs ब्राह्मण, क्या इटावा जातीय ध्रुवीकरण की नई प्रयोगशाला?

शरद कटियार

उत्तर प्रदेश में 2027 का चुनाव धीरे-धीरे नजदीक आ रहा है। राजनीतिक दल सक्रिय हो चुके हैं, रणनीतियाँ बन रही हैं, और अब जातिगत समीकरणों को फिर से साधने की कवायद शुरू हो चुकी है। खासकर इटावा, जो सामाजिक न्याय की राजनीति की प्रयोगशाला रहा है, एक बार फिर जातीय तनाव के बीज बोने की कोशिशों का गवाह बन रहा है।
“यादव बनाम ब्राह्मण” के नाम पर जो सियासी हवा बनाई जा रही है, वह न केवल समाज को बाँटने वाली है, बल्कि लोकतंत्र की बुनियाद को भी चोट पहुँचाती है।

इटावा जिले को समाजवादी आंदोलन का गढ़ माना जाता रहा है। मुलायम सिंह यादव जैसे बड़े नेता की यह कर्मभूमि रही है, तो वहीं ब्राह्मण समाज ने भी शिक्षा, प्रशासन, व्यवसाय और न्याय के क्षेत्र में इस ज़िले को दिशा देने का कार्य किया है।
परंतु आज जब राजनीतिक ताकतें इन दोनों प्रभावशाली जातियों को एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास कर रही हैं, तो यह सवाल उठाना जरूरी हो जाता है—क्या यह राजनीतिक रणनीति है या एक खतरनाक साजिश?

2022 के बाद के चुनावों में देखा गया कि युवाओं का एक बड़ा वर्ग रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और प्रशासन में पारदर्शिता जैसे मुद्दों पर वोट करने लगा है। परंतु 2024 के लोकसभा चुनाव में अपेक्षाकृत कम सीटों पर मिली सफलता से कुछ दलों ने एक बार फिर जातीय समीकरणों पर भरोसा जताना शुरू कर दिया है।

इसी रणनीति के तहत इटावा में “यादव बनाम ब्राह्मण” की लाइन खींचने की कोशिश की जा रही है—जिसमें अफवाहें, सोशल मीडिया मैसेज, और पुराने विवादों को हवा दी जा रही है। यह सब उस “वोट बैंक” को मजबूत करने के लिए किया जा रहा है, जो अब तक जातिगत पहचान के आधार पर बंटा हुआ था।

ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो इटावा में यादव और ब्राह्मण दोनों समुदायों ने मिलकर समाज की उन्नति में योगदान दिया है।

शिक्षा, नौकरशाही और न्यायपालिका में ब्राह्मण समाज की भूमिका रही है। वहीं, सामाजिक आंदोलनों और राजनीतिक चेतना में यादव समाज अग्रणी रहा है।

इन दोनों समुदायों को टकराव की दिशा में ले जाना, उस सामाजिक समरसता को खंडित करेगा, जो वर्षों की साझी मेहनत से बनी है।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यदि इस तरह का जातीय ध्रुवीकरण गहराया तो इसका असर सिर्फ इटावा तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि पूरे पश्चिमी और मध्य उत्तर प्रदेश की चुनावी दिशा बदल सकती है।
जातियों के नाम पर बनाई गई दीवारें, गांवों-मोहल्लों से लेकर स्कूलों और दफ्तरों तक विष घोल देंगी।

और दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इन सबके बीच असली मुद्दे—जैसे बेरोज़गारी, महंगाई, कृषि संकट, शिक्षा का गिरता स्तर और भ्रष्टाचार—गुम हो जाएंगे।

यह केवल राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि मीडिया, सामाजिक संगठनों और जागरूक नागरिकों की भी जिम्मेदारी है कि वे ऐसी राजनीति का विरोध करें जो समाज को बाँटती है।

जाति के नाम पर वोट मांगने वाले नेताओं से यह पूछना ज़रूरी है कि उन्होंने समाज के लिए क्या किया है, सिवाय उसे बांटने के?

2027 का चुनाव विकास, रोजगार, शिक्षा और भ्रष्टाचार के खिलाफ होना चाहिए, न कि “यादव बनाम ब्राह्मण” जैसे नकली संघर्षों पर।

जो नेता समाज को बाँटकर सत्ता पाना चाहते हैं, उन्हें लोकतंत्र की ताकत को समझना होगा—यह जनता है, सब जानती है।

अब समय है कि जनता खुद तय करे कि वह किस पिच पर लड़ाई लड़ेगी—जाति की, या भविष्य की।

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