शरद कटियार
कानपुर जनपद में हाल ही में घटित घटनाक्रम—खासपुर गांव के पूर्व प्रधान अशोक कटियार से जुड़ा विवाद—और उस पर पुलिस विभाग की त्वरित कार्रवाई एक महत्वपूर्ण मिसाल के रूप में देखा जाना चाहिए। यह न केवल पुलिस प्रशासन की कार्यशैली में सकारात्मक बदलाव को दर्शाता है, बल्कि यह भी स्पष्ट करता है कि यदि जनप्रतिनिधियों और समाज के सजग नागरिकों की शिकायतों को गंभीरता से लिया जाए, तो न केवल पीड़ितों को न्याय मिल सकता है, बल्कि शासन-प्रशासन के प्रति आम जनता का भरोसा भी सुदृढ़ हो सकता है।
यह मामला एक राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति, अपना दल के जिलाध्यक्ष दिनेश कटियार द्वारा पुलिस के खिलाफ की गई शिकायत से आरंभ हुआ, जो कि खासपुर गांव के पूर्व प्रधान के साथ कथित अन्याय और सुरक्षा की अनदेखी से संबंधित था। एक समय था जब इस प्रकार की शिकायतें महीनों तक धूल फांकती थीं। लेकिन इस प्रकरण में पुलिस उपायुक्त द्वारा तत्परता दिखाना और सीधे तौर पर लापरवाह दरोगा दयाशंकर को लाइनहाजिर कर देना निस्संदेह एक साहसिक और समयानुकूल निर्णय है।
भारत में अक्सर यह शिकायत सुनने को मिलती है कि कानून-व्यवस्था का पालन केवल आम नागरिकों तक सीमित रह गया है, जबकि सत्ता या रसूख रखने वालों के लिए यह लचीला हो जाता है। किंतु जब वरिष्ठ पुलिस अधिकारी खुद सामने आकर जिम्मेदारी लेते हैं और दोषी कर्मियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करते हैं, तो यह तस्वीर बदलती है।
इस मामले में भी यही हुआ। जैसे ही यह प्रकरण सामने आया, पुलिस उपायुक्त ने न केवल दरोगा को तत्काल हटाया, बल्कि एक विशेष SOG (Special Operations Group) टीम गठित कर आरोपियों के विरुद्ध कार्रवाई का आदेश भी दिया। इससे स्पष्ट है कि कानपुर पुलिस प्रशासन अब सिर्फ आदेशों का अनुपालन करने वाली इकाई नहीं रही, बल्कि न्याय की तत्काल पूर्ति के लिए सक्रिय भूमिका निभा रही है।
विशेष अभियानों के लिए गठित SOG टीमें अब पुलिस प्रशासन के लिए एक अनिवार्य और प्रभावी औजार बन चुकी हैं। ये टीमें अपराधियों की लोकेशन ट्रैक करने, खुफिया सूचना एकत्रित करने, और बिना किसी नौकरशाही बाधा के त्वरित कार्रवाई करने के लिए सक्षम होती हैं।
DCP द्वारा गठित SOG टीम को पूरी स्वतंत्रता देना—यह बताता है कि प्रशासन अपराध पर कड़ा शिकंजा कसना चाहता है। यही नहीं, यह स्वतंत्रता इस बात की भी संकेतक है कि अब अपराधी पुलिस की सुस्ती का लाभ उठाकर बच नहीं सकते।
इस पूरी कार्रवाई से आम जन में एक मनोवैज्ञानिक सुरक्षा का भाव उत्पन्न हुआ है कि अब उनका प्रशासन और पुलिस तंत्र केवल ‘कानूनी औपचारिकताओं’ का पिंजरा नहीं, बल्कि ‘न्याय-प्रदाय’ की एक सशक्त प्रणाली है।
इस मामले में दरोगा दयाशंकर को लाइनहाजिर करने का निर्णय पुलिस विभाग के भीतर व्याप्त लापरवाही और अनुशासनहीनता पर एक करारा तमाचा है। अक्सर देखा गया है कि जमीनी स्तर पर पुलिसकर्मी या थाने के कर्मचारी राजनीतिक या निजी दबाव में आकर मामलों को टालते रहते हैं। इसका खामियाजा पीड़ितों को भुगतना पड़ता है, और धीरे-धीरे जनता का विश्वास पुलिस प्रशासन से उठ जाता है।
किंतु जब ऐसे मामलों में सख्त कदम उठाए जाते हैं, तब केवल एक अधिकारी को ही नहीं, पूरी व्यवस्था को चेतावनी मिलती है। यह कार्रवाई एक संदेश है—कानून के रखवालों के लिए भी अब कोई ढील नहीं होगी।
जिस प्रकार से जिलाध्यक्ष दिनेश कटियार की शिकायत पर त्वरित संज्ञान लिया गया, वह लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की सशक्तता को प्रदर्शित करता है। यह सिद्ध करता है कि राजनीतिक प्रतिनिधि भी यदि सही तरीके से जनहित की बात रखते हैं, तो प्रशासन उनकी बात को गंभीरता से सुनता है।
यह संबंध—राजनीतिक प्रतिनिधियों और प्रशासन के बीच—यदि पारदर्शिता और उत्तरदायित्व पर आधारित हो, तो एक आदर्श शासन की कल्पना को मूर्त रूप दिया जा सकता है।
कानपुर में इस घटना के बाद आम नागरिकों के मन में जो सबसे बड़ा बदलाव आया है, वह है “विश्वास की पुनर्स्थापना।” वर्षों से पुलिस के खिलाफ यह धारणा रही है कि वह केवल रसूख वालों की सुनती है। परंतु जब आम जनता देखती है कि दोषी अधिकारी पर कार्यवाही हो रही है, अपराधियों को पकड़ने के लिए विशेष टीमें बन रही हैं, और उच्चाधिकारी स्वयं मामले की निगरानी कर रहे हैं—तो यह धारणा बदलती है।
यह बदलाव ही वह आधारशिला है, जिस पर एक जवाबदेह और समर्पित शासन-व्यवस्था का निर्माण होता है।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि इस पूरी कार्रवाई में कोई राजनीतिक भेदभाव नहीं दिखा। जहां एक तरफ अपना दल के नेता ने शिकायत की, वहीं प्रशासन ने न तो राजनीतिक रंग देखा, न ही किसी पदाधिकारी की पहचान से प्रभावित हुआ। निष्पक्ष और त्वरित निर्णय—यही प्रशासन की मजबूती का प्रमाण है।
कई बार ऐसा देखा जाता है कि अधिकारी शिकायत को इस आधार पर दरकिनार कर देते हैं कि मामला “राजनीतिक” हो सकता है। लेकिन इस प्रकरण में ऐसा नहीं हुआ। इससे स्पष्ट होता है कि वर्तमान प्रशासन “कानून के शासन” के सिद्धांत को महत्व देता है।
भारत की न्याय प्रणाली की सबसे बड़ी चुनौती है—उसकी धीमी गति। लेकिन अगर पुलिस प्रशासन ही प्राथमिक स्तर पर सजग हो जाए, तो न केवल अपराधियों को समय रहते पकड़ा जा सकता है, बल्कि अदालतों पर भी बोझ कम किया जा सकता है।
इस घटना में देखा गया कि शिकायत मिलते ही तत्काल लाइनहाजिर का आदेश और SOG की तैनाती हुई। यह प्रक्रिया ‘लंबी फाइलों’ की मोहताज नहीं रही। यही है आधुनिक पुलिस प्रशासन की असली पहचान—responsive governance।
यह घटना केवल एक कार्रवाई भर नहीं है, यह एक बड़ा सबक है—पुलिस महकमे, स्थानीय प्रशासन, राजनीतिक दलों और आम जनता के लिए भी।
पुलिस के लिए यह चेतावनी है कि अगर लापरवाही की, तो अब चुपचाप माफ नहीं किया जाएगा।
प्रशासन के लिए यह उदाहरण है कि जनता की शिकायतों पर त्वरित संज्ञान कैसे लिया जाए।
राजनीतिक प्रतिनिधियों के लिए यह सबक है कि सही तरीके से उठाई गई आवाज़ को दबाया नहीं जा सकता। और जनता के लिए यह आश्वासन है कि अगर वे संगठित और सजग रहें, तो न्याय संभव है।
कानपुर के इस घटनाक्रम ने यह साबित कर दिया है कि अगर इच्छाशक्ति हो, तो कोई भी प्रशासनिक तंत्र निष्पक्ष और प्रभावशाली बन सकता है। कानून-व्यवस्था में सुधार कोई कल्पना नहीं, बल्कि एक सशक्त रणनीति का परिणाम होता है। जब वरिष्ठ अधिकारी स्वयं कार्रवाई करते हैं, जब दोषी पुलिसकर्मी को तत्काल हटाया जाता है, जब विशेष टीम गठित होती है—तब अपराधी डरते हैं, और आम आदमी सुरक्षित महसूस करता है।
आज कानपुर में जो हुआ, वह पूरे प्रदेश और देश के लिए एक उदाहरण है। इसे केवल एक घटना नहीं, बल्कि व्यवस्थागत परिवर्तन की दिशा में एक कदम के रूप में देखना चाहिए।
हमें उम्मीद है कि इसी प्रकार की सजगता और तत्परता अन्य जिलों में भी अपनाई जाएगी, ताकि एक ऐसा भारत बन सके, जहां न्याय समय पर मिले और कानून-व्यवस्था एक जीवंत, सक्रिय और भरोसेमंद प्रणाली बनकर उभरे।