प्रशांत कटियार
“जब समाज की बहुसंख्या मीडिया में गूंगी-बहरी कर दी जाए, तो लोकतंत्र भी धीरे-धीरे तानाशाही की ओर बढ़ने लगता है।”
भारतीय लोकतंत्र का चौथा स्तंभ — मीडिया — इस वक्त जिस असमानता से जूझ रहा है, वह किसी भी जागरूक नागरिक को बेचैन कर सकती है। देश में जहाँ बहुजन, पिछड़े, दलित और आदिवासी समुदाय आबादी का एक विशाल हिस्सा हैं, वहीं पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी भागीदारी लगभग न के बराबर है।
हिंदी अखबारों में सवर्ण प्रतिनिधित्व: 83.8%,OBC, SC, ST प्रतिनिधित्व: सिर्फ 9.7% है।
हिंदी न्यूज चैनलों में सवर्ण,प्रतिनिधित्व: 91.9%,OBC, SC, ST प्रतिनिधित्व: केवल 3.3% है।ये आंकड़े केवल नंबर नहीं हैं, ये उस ऐतिहासिक बहिष्करण का प्रमाण हैं जो सामाजिक और वैचारिक स्तर पर मीडिया में चलता आ रहा है।
ऐसे में यह सवाल उठाना लाज़मी है — जब बहुजन समाज का पत्रकारिता में ही प्रतिनिधित्व नहीं है, तो उनके मुद्दे कौन उठाएगा?
हर दिन टी.वी. डिबेट्स, हेडलाइंस, और अख़बारों के संपादकीय पन्नों पर हमें जिस नजरिए की भरमार दिखती है, वह दरअसल एक विशिष्ट वर्गीय विचारधारा का विस्तार है। इसमें हाशिये के समाजों की असल समस्याएं ग़ायब हैं — न शिक्षा पर गंभीर विमर्श, न नौकरियों में भेदभाव पर चर्चा और न ही जातिगत हिंसा की खबरें प्रमुखता से।इसका कारण सीधा है — जब आप दर्पण में सिर्फ एक ही चेहरा देखेंगे, तो बाकी चेहरे गुम हो जाते हैं।
हम एक-दूसरे की टांग खींचने में लगे हुए हैं, जबकि अन्य वर्ग संगठित होकर संसाधनों पर क़ब्ज़ा कर रहे हैं। यह वक्त आत्ममंथन का है। अगर हमें पत्रकारिता में भागीदारी चाहिए, तो हमें अपने समाज के युवाओं को इसके लिए तैयार करना होगा।
क्या आपके मोहल्ले में कोई पत्रकार बनने का सपना देख रहा है?
क्या कोई युवा कैमरा चलाना, खबर लिखना या वीडियो एडिट करना चाहता है?
तो अब ज़िम्मेदारी आपकी है — उसे आगे बढ़ाने की, मार्गदर्शन देने की, और एक मंच उपलब्ध कराने की।
समाधान क्या है?
कैडर स्तर पर पत्रकारिता कार्यशालाएं, डिजिटल मीडिया ट्रेनिंग, लेखन और संवाद कला पर फोकस, सकारात्मक बहुजन विमर्श के लिए वैकल्पिक मीडिया प्लेटफॉर्म खड़े करना। अपने-अपने क्षेत्रों में पत्रकारिता के इच्छुक लोगों की सूची बनाना, उन्हें प्रेरित करना। अनुभवी पत्रकारों, लेखकों और संपादकों से जुड़कर मेंटरशिप नेटवर्क खड़ा करना।
यदि हमें अपनी बात दुनिया तक पहुँचानी है, तो हमें अपनी कलम, कैमरा और आवाज़ खुद बननी होगी। दूसरों से न्याय की उम्मीद तभी करें, जब हम खुद अपने समाज के साथ न्याय कर रहे हों।
पत्रकारिता कोई विशेषाधिकार नहीं है — यह जिम्मेदारी है। और अब समय आ गया है कि बहुजन समाज इस जिम्मेदारी को उठाए।