मुंबई के नालासोपारा से सामने आया यह हत्याकांड महज़ एक आपराधिक घटना नहीं, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक मूल्यों के क्षरण का एक भयावह उदाहरण है। जहां एक पत्नी ने अपने प्रेमी के साथ मिलकर पति की नृशंस हत्या कर दी, उसे ड्रम में बंद कर फर्श के नीचे दफनाया और ऊपर से टाइल लगाकर जिंदगी सामान्य होने का ढोंग रच दिया — यह सिर्फ अपराध नहीं, सोच और संवेदना की हत्या भी है।
इस घटना ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या रिश्तों में अब विश्वास, समर्पण और नैतिकता की जगह सिर्फ लालच, धोखा और स्वार्थ ने ले ली है?
एक महिला, जो जीवनसाथी के रूप में अपने पति की अर्धांगिनी थी, वह ही जब मौत की साज़िश की सूत्रधार बन जाए, तो समाज के सामने सवाल खड़ा होता है — हम कहां जा रहे हैं?
मृतक विजय चौहान के परिजनों ने जब 21 दिन तक उसके लिए खोजबीन की, तब भी उन्हें अंदाज़ा नहीं रहा होगा कि जिस घर को उन्होंने खुद बनाया, उसी घर की दीवारें और फर्श उनके अपनों के लहू से लथपथ होंगे।
यह बात भी सोचने लायक है कि हत्या के बाद आरोपी पत्नी ने इतनी सफाई से साक्ष्य मिटाने की कोशिश की कि उसने मृतक के ही भाई से टाइल्स और पत्थर लगवाए — यह केवल शातिरपना नहीं, यह रिश्तों की क्रूरता की पराकाष्ठा है।
अब सवाल पुलिस की जिम्मेदारी का नहीं, समाज की आत्मा का है। प्रेम, वासना और छल जब अपने चरम पर पहुंचते हैं तो यही होता है — एक निर्दोष पति मारा गया, और इंसानियत ज़मीन में गाड़ दी गई।
जरूरत इस बात की है कि ऐसे मामलों को सिर्फ ‘क्राइम न्यूज़’ की तरह न देखा जाए, बल्कि समाज, परिवार और शिक्षा व्यवस्था को गहराई से टटोलने की ज़रूरत है। क्या हम अपने बच्चों को भावनात्मक समझ, नैतिकता और आत्मसंयम सिखा पा रहे हैं?
जब तक रिश्तों में नैतिकता नहीं लौटेगी, और कानून का भय हर नागरिक के दिल में नहीं बैठेगा, तब तक ऐसे नालासोपारा जैसे मामले हमारे मन को झकझोरते रहेंगे।
