महाराष्ट्र के नागपुर में औरंगजेब की कब्र हटाने की मांग को लेकर विश्व हिंदू परिषद (विहिप) और बजरंग दल सहित अन्य हिंदू संगठनों के प्रदर्शन के दौरान हुई हिंसा ने देश में सांप्रदायिक तनाव और कानून-व्यवस्था की विफलता को उजागर कर दिया है। इस घटना ने यह भी साबित कर दिया कि धार्मिक और राजनीतिक मुद्दों को लेकर भड़काऊ बयानबाजी और संगठित विरोध प्रदर्शन किस तरह समाज में अशांति और टकराव को जन्म दे सकते हैं।
यह हिंसा उस समय हुई जब हिंदू संगठनों ने औरंगजेब की कब्र को हटाने की मांग को लेकर प्रदर्शन किया। इस दौरान दो गुट आमने-सामने आ गए और पत्थरबाजी, आगजनी व हिंसक झड़पें हुईं। पुलिस को स्थिति नियंत्रित करने के लिए बल प्रयोग करना पड़ा, और अब तक पांच एफआईआर दर्ज कर करीब 50 लोगों को हिरासत में लिया जा चुका है। इस दौरान महिला पुलिसकर्मियों के साथ दुर्व्यवहार की कोशिश भी की गई, जो यह दर्शाता है कि किस तरह भीड़तंत्र कानून और व्यवस्था को धता बताकर अराजकता फैला सकता है।
हिंदू संगठनों द्वारा औरंगजेब की कब्र को हटाने की मांग कोई अचानक उठी हुई मांग नहीं है। पिछले कुछ वर्षों से कई दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा यह मांग की जा रही थी कि औरंगजेब की कब्र को नष्ट किया जाए या उसे सार्वजनिक स्थल से हटाया जाए। इस मांग के पीछे तर्क दिया जाता है कि औरंगजेब भारत में इस्लामी कट्टरता और हिंदू विरोधी नीतियों का प्रतीक था, जिसने लाखों हिंदुओं को जबरन इस्लाम अपनाने पर मजबूर किया और सैकड़ों मंदिरों को तोड़ा।
हालांकि, इतिहास की इस व्याख्या को लेकर देश में मतभेद भी रहे हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि औरंगजेब की नीतियां पूरी तरह धार्मिक नहीं थीं, बल्कि उनकी आर्थिक और राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से प्रेरित थीं। इसके बावजूद, आज औरंगजेब की विरासत को लेकर जारी बहसें राजनीतिक ध्रुवीकरण का हिस्सा बन चुकी हैं।
इस हिंसा का राजनीतिक पहलू यह भी है कि महाराष्ट्र में सत्ता परिवर्तन के बाद से हिंदूवादी संगठनों की गतिविधियों में तेजी आई है। भाजपा और शिवसेना (शिंदे गुट) की सरकार बनने के बाद कई ऐसे मुद्दे उठाए गए हैं जो हिंदू वोट बैंक को मजबूत करने के लिए अहम माने जा रहे हैं। नागपुर में हुई हिंसा इसी राजनीतिक पृष्ठभूमि का हिस्सा नजर आती है।
इस पूरे घटनाक्रम में स्थानीय प्रशासन और पुलिस की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। नागपुर जैसी जगह, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का गढ़ मानी जाती है, वहां इस तरह की हिंसा होना यह दर्शाता है कि खुफिया एजेंसियां या तो अलर्ट नहीं थीं या फिर उन्होंने समय पर सही जानकारी नहीं दी। जब यह प्रदर्शन पूर्व निर्धारित था और संभावित रूप से विवादित मुद्दे पर था, तो पर्याप्त सुरक्षा प्रबंध क्यों नहीं किए गए?उपद्रवियों पर कड़ा नियंत्रण क्यों नहीं? जब पुलिस को उपद्रवियों की संख्या और उनके इरादों का अंदाजा था, तो शुरुआती स्तर पर उन्हें नियंत्रित क्यों नहीं किया गया?सबसे गंभीर सवाल यह उठता है कि जब भीड़ हिंसक हुई और महिला पुलिसकर्मियों के साथ दुर्व्यवहार की कोशिश की गई, तो क्या सुरक्षा इंतजाम पर्याप्त थे?नागपुर की यह घटना केवल एक दिन का उपद्रव नहीं थी, बल्कि यह भारतीय समाज में गहराते सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को भी दिखाती है। जब राजनीतिक और धार्मिक संगठन इस तरह के आंदोलनों को बढ़ावा देते हैं, तो आम जनता का ध्रुवीकरण होना स्वाभाविक है।जब भी कोई विवादित मुद्दा उठता है, तो उसकी आड़ में धार्मिक संगठन अपने समर्थकों को भड़काने का काम करते हैं। इससे समाज में तनाव बढ़ता है और एक सामान्य प्रदर्शन भी हिंसक हो सकता है।सामाजिक ताने-बाने पर असर: इस तरह की घटनाएं एक समुदाय को दूसरे के खिलाफ खड़ा कर देती हैं। इसका असर न केवल धार्मिक सद्भाव पर पड़ता है, बल्कि आर्थिक गतिविधियों और व्यापार पर भी पड़ता है। जब प्रशासन और पुलिस की विश्वसनीयता पर सवाल उठते हैं, तो आम जनता का कानून और व्यवस्था पर से भरोसा उठने लगता है। इससे अराजकता और बढ़ती है।इस पूरे घटनाक्रम में मीडिया की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही। कई मीडिया हाउसों ने निष्पक्ष रिपोर्टिंग की, लेकिन कुछ ने सनसनीखेज सुर्खियां बनाकर स्थिति को और भड़काने का काम किया।किसी भी खबर को प्रकाशित करने से पहले उसकी सत्यता की जांच होनी चाहिए।अफवाहों और अर्धसत्य खबरों को प्रसारित करने से बचना चाहिए, क्योंकि इससे हिंसा को बढ़ावा मिल सकता है। मीडिया को समाज में शांति और सौहार्द बनाए रखने के लिए सकारात्मक रिपोर्टिंग करनी चाहिए।नागपुर की इस हिंसा से हमें कई महत्वपूर्ण सबक लेने की जरूरत है, ताकि भविष्य में इस तरह की घटनाएं दोबारा न हों।
प्रशासन और पुलिस को इस तरह के विरोध प्रदर्शनों से पहले ही सख्ती बरतनी होगी और ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न होने से पहले ही उन्हें नियंत्रित करना होगा।
धार्मिक और सामाजिक संगठनों को मिलकर संवाद स्थापित करना चाहिए, ताकि धार्मिक असहमति हिंसा में तब्दील न हो।
जो भी लोग हिंसा में शामिल थे, उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए, ताकि भविष्य में इस तरह के उपद्रव को रोका जा सके।
अफवाहों को रोकने के लिए सोशल मीडिया की निगरानी बढ़ाई जानी चाहिए, ताकि किसी भी तरह की गलत जानकारी फैलने से पहले उसे नियंत्रित किया जा सके।
नागपुर हिंसा केवल एक प्रदर्शन की परिणति नहीं थी, बल्कि यह हमारे समाज में बढ़ते ध्रुवीकरण और प्रशासनिक लापरवाही की चेतावनी भी थी। अगर सरकार, प्रशासन, मीडिया और नागरिक एक साथ मिलकर जिम्मेदारी नहीं निभाएंगे, तो ऐसी घटनाएं दोबारा होंगी और समाज में अस्थिरता बढ़ती जाएगी।
हमें यह समझना होगा कि कोई भी विवाद इतना बड़ा नहीं होता कि उसे बातचीत और शांति के माध्यम से हल न किया जा सके। लेकिन जब इसे राजनीतिक और धार्मिक रंग दिया जाता है, तब समाज में हिंसा, घृणा और अस्थिरता फैलती है।
अब समय आ गया है कि हम उन्माद से ऊपर उठकर विवेकपूर्ण तरीके से मुद्दों को हल करें, ताकि हमारा समाज शांति, समरसता और प्रगति के रास्ते पर आगे बढ़ सके।