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Sunday, July 6, 2025

मुहर्रम: इमाम हुसैन की कुर्बानी को समर्पित इस्लामी नववर्ष का प्रथम महीना, ग़म और उसूलों की मिसाल बना

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फर्रुखाबाद। इस्लामी हिजरी कैलेंडर के पहले महीने मुहर्रम की शुरुआत के साथ ही मुस्लिम समाज में शोक, आत्मसंयम और आस्था का वातावरण बन गया है। ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण यह महीना न केवल इस्लामिक नववर्ष का उद्घोष करता है, बल्कि कर्बला की घटना के माध्यम से इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत की स्मृति को भी जीवंत करता है।

मुहर्रम माह विशेष रूप से 10वीं तारीख — जिसे आशूरा कहा जाता है — को केंद्र में रखकर मनाया जाता है। इसी दिन हज़रत इमाम हुसैन, जो इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मोहम्मद साहब के नवासे थे, ने 72 साथियों सहित कर्बला के मैदान में अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करते हुए शहादत दी थी। इतिहासकारों के अनुसार यह संघर्ष महज़ सत्ता परिवर्तन का नहीं, बल्कि सत्य, न्याय और धार्मिक मूल्यों की रक्षा का प्रतीक था।

सूफी परंपरा से जुड़े सज्जादा नशीन मोहब्बत शाह बताते हैं कि “इमाम हुसैन ने यज़ीद की ज़ालिम सत्ता के सामने झुकने की बजाय, तपती रेत पर अपने परिजनों के साथ बलिदान दिया। यह केवल शहादत नहीं, बल्कि इंसानियत की हिफाज़त और न्याय के पक्ष में खड़े रहने का ऐतिहासिक उदाहरण है।”

मुहर्रम के दौरान देशभर में विभिन्न स्थानों पर मजलिसों का आयोजन किया जाता है, जहां इमाम हुसैन की जीवनगाथा, उनके सिद्धांतों, और कर्बला की घटना को याद किया जाता है। इसके अतिरिक्त ताजिया और अलम के रूप में प्रतीकात्मक जुलूस निकाले जाते हैं। ताजिया को इमाम हुसैन की मज़ार का प्रतीक माना जाता है, जिसे कलाकारों द्वारा भव्य रूप से सजाया जाता है। वहीं अलम हज़रत अब्बास की बहादुरी, वफ़ादारी और बलिदान की स्मृति के रूप में श्रद्धापूर्वक उठाया जाता है।

धार्मिक विद्वानों के अनुसार, मुहर्रम केवल एक शोककाल नहीं है, बल्कि यह आत्मनियंत्रण, ईमानदारी, इंसाफ और सच्चाई की परंपरा का पुनर्स्मरण भी है। इसके अतिरिक्त, इस महीने की 9वीं और 10वीं तारीखों को रोज़ा रखने की विशेष फज़ीलत हदीसों में वर्णित है, जिसे कई मुसलमान विशेष भक्ति के साथ निभाते हैं।

कुल मिलाकर, मुहर्रम का महीना वर्तमान समय में भी समाज को यह संदेश देता है कि परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी कठिन क्यों न हों, अगर बात सच्चाई और न्याय की हो, तो समझौता नहीं किया जाना चाहिए। कर्बला की गूंज आज भी मजलिसों, इमामबाड़ों और जुलूसों के माध्यम से विश्व स्तर पर सुनी जाती है — एक ऐसी गूंज जो सत्य के पक्ष में बलिदान देने की प्रेरणा देती है।

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