प्रशांत कटियार
“अपनों से दूर हो जाना उन्नति के लिए आवश्यक (Necessary) है” — यह वाक्य एक सरल भाव व्यक्त करता है, लेकिन इसके भीतर एक गूढ़ जीवन-तत्व छिपा हुआ है। यह केवल भौगोलिक दूरी की बात नहीं करता, बल्कि मानसिक, सामाजिक (Social) और भावनात्मक स्तर (emotional level) पर एक स्वावलंबी यात्रा की ओर संकेत करता है। यह आलेख इस कथन की गहराई, इसके पक्ष-विपक्ष और सामाजिक यथार्थ को विश्लेषणात्मक दृष्टि से प्रस्तुत करता है।
मानव सामाजिक प्राणी है, जो परिवार, मित्र और समाज के सहारे ही अपने जीवन की नींव रखता है। लेकिन जब बात आत्मविकास, करियर की ऊँचाइयों या किसी अद्वितीय लक्ष्य की होती है, तो अक्सर व्यक्ति को एक ऐसी राह पर निकलना होता है जहाँ सहजता की जगह संघर्ष, और भावनाओं की जगह अनुशासन होता है।
ऐसे में ‘अपनों से दूरी’ केवल एक विकल्प नहीं, बल्कि कई बार आवश्यकता बन जाती है। छात्र पढ़ाई के लिए, युवा नौकरी या व्यवसाय के लिए, और कलाकार साधना के लिए अपने घर-परिवार से दूर निकलते हैं। यह दूरी कभी-कभी उन्हें भीतर से तोड़ती है, लेकिन वही दूरी उन्हें आत्मनिर्भर, सशक्त और गंभीर बनाती है।
अपनों से दूर होने का अर्थ सिर्फ दूरी नहीं है, बल्कि एक भीतरू संघर्ष भी है। जब कोई युवा अपने माता-पिता, भाई-बहन, मित्रों को छोड़ किसी अनजान शहर या देश में नए सपनों के साथ निकलता है, तो वह सिर्फ करियर नहीं बना रहा होता — वह खुद को गढ़ रहा होता है। उसके पास न कोई भावनात्मक सहारा होता है, न ही कोई तुरंत मदद को दौड़ता है। वही कठिनाइयाँ उसे निर्णय लेना, गलतियों से सीखना और खुद को संभालना सिखाती हैं। यहीं से उन्नति की नींव पड़ती है।
समाज की वास्तविकता
आज की प्रतिस्पर्धात्मक दुनिया में अवसर उन्हीं के लिए हैं जो स्वयं निर्णय ले सकें, कठिन रास्तों से गुजरने का साहस रखें और अपने सपनों के लिए त्याग कर सकें। कई सफल लोगों — जैसे डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद — ने अपनों से दूर रहकर ही अपने जीवन के उद्देश्य को पाया।
गाँव या छोटे शहर से निकलकर महानगरों में बसना, साधनों के अभाव में भी मेहनत करना — यह सब उन्नति की उस प्रक्रिया का हिस्सा है जिसमें भावनात्मक बलिदान एक अनिवार्य तत्व है।
क्या हर किसी को दूर जाना चाहिए?
यह जरूरी नहीं कि हर व्यक्ति को उन्नति के लिए अपनों से दूर जाना ही पड़े। कई बार सही वातावरण, सहयोगी परिवार और संसाधन व्यक्ति को घर बैठे भी ऊंचाईयों तक पहुँचा सकते हैं। लेकिन फिर भी, आत्मनिर्भर बनने के लिए कुछ दूरी, कुछ अकेलापन और कुछ त्याग आवश्यक हैं। अपनों से दूरी एक कठिन लेकिन कई बार आवश्यक अनुभव है, जो व्यक्ति को आत्मविश्वासी, परिपक्व और जीवन के लिए तैयार बनाता है। यह दूरी स्थायी न हो, लेकिन वह संघर्ष का वह पाठ पढ़ा जाती है जिसे कोई स्कूल नहीं सिखा सकता। उन्नति का मार्ग अगर तपस्या है, तो ‘अपनों से थोड़ी दूरी’ उस तपस्या का पहला चरण है।
प्रशांत कटियार