रोहित श्रीवास्तव
जीवन में हर व्यक्ति दो महत्वपूर्ण ध्रुवों के बीच संतुलन साधने की कोशिश करता है — पैसा और परिवार। एक ओर जहां पैसा हमारी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, वहीं परिवार हमें मानसिक शांति और भावनात्मक सहारा देता है। लेकिन जब यही परिवार पैसों के लिए अपेक्षाएं और दबाव बनाता है, तब इंसान उस रिश्तों के बंधन से दूर जाकर पैसे को प्राथमिकता देना शुरू कर देता है
पैसा बनाम परिवार: आदर्श और यथार्थ
सामान्यतः हम यही मानते हैं कि “पैसा तो आ जाएगा, लेकिन परिवार नहीं”, और इसी सोच के साथ कई लोग अपने सपनों, करियर और व्यक्तिगत सुखों की बलि चढ़ा देते हैं — सिर्फ अपनों के लिए। वे सोचते हैं कि त्याग ही परिवार को जोड़े रखता है।
लेकिन यथार्थ में कई बार परिवार खुद इंसान की कमजोरियों का फायदा उठाता है। जब परिवार पैसों के लिए लगातार अपेक्षाएं, तानों और दबाव का माध्यम बन जाए, तो इंसान के मन में सवाल उठता है — “क्या मेरा अस्तित्व सिर्फ एक एटीएम मशीन बनकर रह गया है?”
जब रिश्ते मूल्य नहीं, मूल्यांकन करने लगते हैं
कभी-कभी परिवार यह भूल जाता है कि इंसान सिर्फ कमाने वाली मशीन नहीं है, उसके भी सपने, भावनाएं और सीमाएं होती हैं। जब वह लगातार यही सुनता है कि:
- “तुम क्या कर रहे हो जिंदगी में?”
- “फलां का बेटा इतना कमा रहा है।”
- “हमने तुम्हारे लिए इतना किया, अब तुम्हारी बारी है।”
तब वह भावनात्मक रूप से टूटने लगता है। यह भावना इंसान को परिवार से दूर कर देती है — शारीरिक रूप से नहीं तो मानसिक रूप से अवश्य।
आर्थिक स्वतंत्रता बनाम भावनात्मक गुलामी
आज के दौर में आर्थिक स्वतंत्रता जीवन की प्राथमिक जरूरत बन चुकी है। जब परिवार ही इंसान की मानसिक शांति छीन ले, तब उसके लिए पैसा कमाना एक मजबूरी नहीं, आत्मरक्षा का तरीका बन जाता है।
वह सोचता है कि अगर परिवार को खुश रखना है, तो पहले खुद को आर्थिक रूप से इतना मजबूत बनाना होगा कि कोई ताना न दे, कोई अपेक्षा न हो, और कोई उसकी “कीमत” तय न कर सके।
दूर होकर करीब रहना
यह भी एक कटु सच्चाई है कि कई लोग सिर्फ इसलिए परिवार से दूर रहते हैं क्योंकि जब वे साथ होते हैं, तो भावनात्मक शोषण का शिकार होते हैं। लेकिन दूर जाकर वे पैसे कमाते हैं, परिवार की मदद भी करते हैं, और अपने आत्म-सम्मान को भी बचाए रखते हैं।
दूरी हमेशा बेरुखी का संकेत नहीं होती, कभी-कभी यह आत्म-संरक्षण होती है।
निष्कर्ष:
पैसा और परिवार दोनों ही जरूरी हैं, लेकिन जब परिवार इंसान को सिर्फ पैसों के तराजू पर तौलने लगे, तब व्यक्ति को खुद के अस्तित्व, आत्म-सम्मान और मानसिक स्वास्थ्य के लिए निर्णय लेना पड़ता है।
परिवार वह नहीं जो सिर्फ आपकी जेब देखे, बल्कि वह है जो आपके संघर्ष को समझे। और पैसा वह नहीं जो रिश्ते जीवन जीने का अधिकार देता है।