भारत में विधि व्यवस्था की जटिलता और न्याय प्राप्त करने की प्रक्रिया की धीमी गति को लेकर समय-समय पर प्रश्न उठते रहे हैं। लेकिन जब न्याय की तलाश में एक नागरिक द्वारा वर्ष 2001 में दर्ज कराई गई शिकायत पर 2025 तक भी कोई अंतिम निर्णय न आए, और इस देरी का कारण पुलिस की लापरवाही एवं दस्तावेज़ों का लापता होना हो, तो यह केवल एक प्रशासनिक चूक नहीं बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में आम नागरिक के अधिकारों पर सीधा प्रहार माना जाना चाहिए।
फर्रुखाबाद जनपद के थाना मऊदरवाजा क्षेत्र में घटित यह मामला न केवल उत्तर प्रदेश पुलिस व्यवस्था की कार्यशैली पर गंभीर प्रश्नचिह्न खड़े करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि किस प्रकार से थानों में रखी जाने वाली पत्रावलियों का लापता हो जाना, न्याय प्रक्रिया को बाधित करने का एक प्रमुख कारण बन चुका है।
कोतवाली फतेहगढ़ क्षेत्रान्तर्गत ग्राम याकूतगंज निवासी श्री सतीश चंद्र पुत्र श्री रामचंद्र कटियार ने वर्ष 2001 में धोखाधड़ी की गंभीर धाराओं के अंतर्गत, धारा 418, 419 और 420 के तहत विभिन्न व्यक्तियों के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज कराई थी। इस मामले में कुल सात नामजद आरोपियों में महेंद्र कुमार, हरेंद्र कुमार, अरविंद कुमार, सुधीर कुमार (सभी पुत्रगण रमेश चंद्र, निवासी बढ़पुर फर्रुखाबाद), शिव बहादुर पटेल (तत्कालीन तहसीलदार, सदर फर्रुखाबाद), गुरबचन दास (नाजिर, तहसील सदर), तथा रामानुज द्विवेदी (एडवोकेट) शामिल हैं।
शिकायतकर्ता ने यह मामला न्यायालय की धारा 156(3) के अंतर्गत प्रस्तुत किया था, जिससे पुलिस पर विवेचना का दायित्व आया। यह मुकदमा वर्ष 2001 में दर्ज हुआ और 29 अप्रैल 2002 को अंतिम आख्या न्यायालय में दाखिल की गई। किंतु 30 अगस्त 2008 को न्यायालय द्वारा उक्त अंतिम आख्या को निरस्त कर दोबारा विवेचना के आदेश दिए गए। 1 अक्टूबर 2008 को पत्रावली थाने के पैरोकार को सौंप दी गई। इसके बाद पूरे 17 वर्षों तक इस पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई।
जब 2025 में माननीय न्यायालय ने इस प्रकरण की सुनवाई में प्रगति जाननी चाही और थानाध्यक्ष मऊदरवाजा को नोटिस के माध्यम से 16 मई 2025 को तलब किया, तो 20 मई 2025 को थानाध्यक्ष ने न्यायालय में यह जवाब प्रस्तुत किया कि उक्त पत्रावली का न तो थाने के अभिलेखों में कोई उल्लेख है और न ही यह जानकारी उपलब्ध है कि पुनः विवेचना हेतु किस विवेचक को पत्रावली सौंपी गई थी।
यह उत्तर न केवल न्यायालय की अवमानना है बल्कि संपूर्ण पुलिस तंत्र की कार्यप्रणाली की लापरवाही को उजागर करता है। यह कैसे संभव है कि एक गंभीर आपराधिक मामले की पत्रावली वर्षों तक थाने में पड़े-पड़े अचानक गायब हो जाए और किसी को इसकी भनक तक न लगे?
इस प्रकरण में सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि न्यायालय के आदेश के बावजूद पुलिस ने मामले में किसी भी प्रकार की तत्परता नहीं दिखाई। पत्रावली का लापता होना और संबंधित अधिकारियों द्वारा उसकी खोज में दिलचस्पी न दिखाना यह स्पष्ट करता है कि यह मात्र लापरवाही नहीं, बल्कि कहीं न कहीं इसे दबाने का एक सुनियोजित प्रयास हो सकता है।
अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने इस पर संज्ञान लेते हुए पुलिस अधीक्षक को पत्र लिखकर मामले की जांच कराने एवं दोषी पुलिसकर्मी के विरुद्ध कार्रवाई सुनिश्चित करने के निर्देश दिए हैं, और साथ ही न्यायालय को एक सप्ताह के भीतर रिपोर्ट सौंपने को कहा है। अब यह देखना शेष है कि क्या पुलिस अधीक्षक द्वारा न्यायालय की अपेक्षाओं के अनुरूप कार्यवाही की जाएगी या फिर यह मामला भी अन्य लंबित मामलों की तरह समय के गर्त में समा जाएगा।
किसी भी लोकतंत्र में आम नागरिक को न्याय प्राप्त करने का मूलभूत अधिकार है। जब एक नागरिक अपने अधिकारों की रक्षा हेतु विधिक प्रक्रिया का सहारा लेता है और उसके बदले उसे वर्षों तक प्रतीक्षा करनी पड़े—केवल इसलिए क्योंकि थाने में संबंधित पत्रावली गुम हो गई—तो यह स्थिति न केवल निंदनीय है, बल्कि आम जनता की न्याय व्यवस्था से विश्वास को भी डगमगा देती है।
क्या यह आशंका निर्मूल है कि कई मामलों में जानबूझकर पत्रावली गायब की जाती हैं ताकि प्रभावशाली आरोपियों को कानूनी दायरे से बाहर रखा जा सके? अगर नहीं, तो यह आवश्यक हो जाता है कि सरकार एवं उच्च न्यायपालिका इस प्रकार की घटनाओं की समयबद्ध जांच कर दोषियों को कठोर दंड दे।
इस प्रकरण के परिप्रेक्ष्य में आवश्यकता है एक सुव्यवस्थित और पारदर्शी दस्तावेज़ प्रबंधन प्रणाली की, जिसमें दर्ज किए गए प्रत्येक मामले की पत्रावलियाँ डिजिटल माध्यम से सुरक्षित रखी जाएं। ई-गवर्नेंस की दिशा में पुलिस थानों को पूरी तरह से डिजिटल बनाना आवश्यक है ताकि कोई भी पत्रावली न तो गुम हो सके और न ही जानबूझकर हटाई जा सके।
इसके अतिरिक्त पुलिस विभाग में जवाबदेही की भावना उत्पन्न करने हेतु यह भी आवश्यक है कि थानाध्यक्षों की मासिक समीक्षा के दौरान पुराने लंबित मामलों की स्थिति की जांच हो और पत्रावलियों की भौतिक उपलब्धता को प्राथमिकता दी जाए।
फर्रुखाबाद के मऊदरवाजा थाने से संबंधित यह घटना केवल एक पत्रावली के गुम हो जाने की बात नहीं है, बल्कि यह एक नागरिक के 17 वर्षों के संघर्ष, उसकी उम्मीदों, और न्यायिक व्यवस्था की साख से जुड़ा हुआ मसला है। यह प्रकरण उत्तर प्रदेश पुलिस के समक्ष एक चुनौती बनकर खड़ा है, जिसकी ईमानदारीपूर्वक जांच कर दोषियों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई ही न केवल न्याय की स्थापना कर सकती है, बल्कि आम जनमानस में विधि व्यवस्था के प्रति विश्वास को भी पुनर्स्थापित कर सकती है।
पुलिस प्रशासन, न्यायपालिका और सरकार को अब यह तय करना होगा कि क्या वे भविष्य में ऐसे मामलों को टालते रहेंगे, या फिर इस अवसर को व्यवस्था में सकारात्मक परिवर्तन लाने के रूप में लेंगे। जनता की अपेक्षाएं स्पष्ट हैं—न्याय, पारदर्शिता और उत्तरदायित्व। यदि अब भी कदम न उठाए गए, तो यह एक और उदाहरण बनकर रह जाएगा, जहां न्याय पत्रावली के गुम होने में खो गया।