शरद कटियार
उत्तर प्रदेश के कन्नौज जनपद में घटी एक भयावह घटना ने पूरे समाज को झकझोर कर रख दिया है। सौरिख थाना क्षेत्र के गांव कुठला निवासी 22 वर्षीय युवक देवांशू ने अपनी प्रेमिका दीप्ति की गोली मारकर हत्या कर दी और फिर स्वयं को भी गोली मार ली। यह घटना मात्र एक प्रेम-प्रसंग नहीं, बल्कि हमारे समाज की उस गहरी चुप्पी और संवादहीनता का आईना है, जो युवाओं को भावनात्मक रूप से अस्थिर बना देती है। यह एक चेतावनी है—हमारे सामाजिक ढांचे, पारिवारिक व्यवहार और युवाओं की मानसिकता पर पुनः सोचने की।
यह घटना रात के उस पहर हुई, जब आमतौर पर सब गहरी नींद में होते हैं। देवांशू नामक युवक, जो लंबे समय से अपने ही पड़ोसी गांव सुल्तानपुर की बीएससी की छात्रा दीप्ति से प्रेम करता था, इस हद तक टूट चुका था कि दीप्ति की शादी तय होते ही उसने मौत को गले लगा लिया—पर पहले दीप्ति को भी मौत के घाट उतार दिया। उसने पिता की लाइसेंसी बंदूक से पहले दीप्ति की छत पर जाकर उसके सीने में गोली दाग दी और फिर खुद को गोली मार ली। दोनों की मौके पर ही मौत हो गई।
इस तरह की घटनाएं कोई पहली बार नहीं हो रही हैं। भारत के ग्रामीण समाजों में प्रेम-संबंधों को अब भी वह मान्यता नहीं मिलती जो एक स्वतंत्र सोच रखने वाले समाज में मिलनी चाहिए। अधिकतर मामलों में प्रेम को या तो सामाजिक प्रतिष्ठा के विरुद्ध माना जाता है या पारिवारिक नियंत्रण के उल्लंघन के रूप में देखा जाता है। खासकर युवतियों पर पारिवारिक दबाव अधिक होता है—उन्हें उनकी मर्जी के विरुद्ध रिश्तों से तोड़कर शादी के बंधन में बांध दिया जाता है।
दीप्ति के मामले में भी सवाल यह उठता है कि क्या उस पर भी शादी का सामाजिक या पारिवारिक दबाव था? क्या उसने देवांशू से संवाद समाप्त करना मजबूरी में किया? और अगर हाँ, तो क्या परिवार ने कभी उस रिश्ते को समझने या सम्मान देने की कोशिश की?
देवांशू की प्रतिक्रिया को यदि केवल “प्रेम में पागलपन” कहा जाए तो यह केवल भाषा के साथ अन्याय नहीं बल्कि मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं को नजरअंदाज करने वाली एक खतरनाक सामान्यीकरण भी है। प्रेम, जब स्वस्थ होता है, तब यह शक्ति देता है; लेकिन जब उसमें स्वीकृति, संवाद और संतुलन नहीं होता, तो यह अवसाद, गुस्से और असहायता की ओर ले जाता है।
इस युवक की मानसिक स्थिति क्या थी? क्या वह पहले से ही तनाव में था? क्या कोई ऐसा था जिसने उसके व्यवहार में आई असामान्यता को देखा हो? समाज और परिवार की चुप्पी ने उसे इतना अकेला कर दिया कि उसने इस क्रूर रास्ते को चुना?
इस तरह की घटनाओं में सबसे बड़ी भूमिका होती है परिवार की, समाज की और हमारे शिक्षण तंत्र की।
ज्यादातर परिवार प्रेम संबंधों को “लज्जाजनक” मानते हैं और बच्चों से खुलकर संवाद नहीं करते। जब कोई युवा प्रेम करता है, तो उसे यह डर सताता है कि अगर यह बात घरवालों को पता चल गई, तो न केवल डांट पड़ेगी, बल्कि सामाजिक अपमान भी होगा। यही डर बच्चों को चुप रहने और खुद निर्णय लेने के लिए मजबूर करता है, जो कई बार दुर्भाग्यपूर्ण अंत तक जाता है।
समाज आज भी लड़कियों के प्रेम संबंधों को ‘चरित्रहीनता’ से जोड़ता है। लड़कों के लिए प्रेम कभी ‘शौक’ होता है, तो कभी ‘अधिकार’। ऐसे में जब कोई लड़की अपने रिश्ते से दूरी बना लेती है या परिवार के कहने पर पीछे हट जाती है, तो कुछ असंतुलित युवक इसे अपमान और विश्वासघात की तरह लेते हैं।
हमारे पाठ्यक्रमों में अब तक रिश्तों, भावनाओं और मानसिक संतुलन पर कोई ठोस शिक्षा नहीं दी जाती। स्कूल-कॉलेज केवल विषयों की जानकारी देते हैं, लेकिन युवाओं को जीवन के जटिल सवालों से जूझना नहीं सिखाते।
यह घटना केवल हत्या या आत्महत्या नहीं है। यह एक साझा असफलता है—परिवार, समाज, शासन, शिक्षा और संवाद की। यह बताती है कि हमने कैसे एक युवक को इतना असहाय छोड़ दिया कि उसने अपनी प्रेमिका की हत्या कर दी और खुद को भी खत्म कर लिया।
पुलिस की तत्परता पर सवाल नहीं है, लेकिन सामाजिक घटनाओं में पुलिस की भूमिका केवल बाद की होती है। असल सवाल यह है कि एक युवक को लाइसेंसी हथियार तक इतनी आसानी से कैसे पहुंच मिली? क्या हथियार रखने वाले पर परिवार की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती कि उसका दुरुपयोग न हो?
क्या गांव या क्षेत्र में मानसिक रूप से तनावग्रस्त या अत्यधिक भावुक युवाओं की काउंसलिंग के लिए कोई प्रणाली है? और अगर नहीं है, तो क्यों नहीं?
आज का युवा सोशल मीडिया पर अत्यधिक निर्भर है। वहां पर रिश्तों को परिभाषित करने का एक कृत्रिम तरीका विकसित हुआ है—‘ब्लॉक करना’, ‘अनफॉलो करना’, या ‘सीनजोन करना’। यह कृत्रिम व्यवहार युवाओं को अस्वीकृति को सहन करने की ताकत नहीं देता। ऐसा लगता है जैसे किसी ने बात बंद की तो जीवन का अर्थ ही खत्म हो गया।
दीप्ति ने अगर बात करना बंद किया, तो यह उसका अधिकार था। लेकिन क्या देवांशू को यह सिखाया गया था कि अस्वीकृति को कैसे सहा जाए? यह शिक्षा केवल घर और स्कूल से ही मिल सकती है।
समाज के लिए कुछ जरूरी सवाल,क्या प्रेम संबंधों को लेकर समाज में संवाद को बढ़ावा देने की जरूरत नहीं है?क्या स्कूलों और कॉलेजों में मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा और काउंसलिंग अनिवार्य नहीं होनी चाहिए?क्या पेरेंट्स को बच्चों के भावनात्मक विकास पर ध्यान नहीं देना चाहिए, सिर्फ करियर और शादी पर ही क्यों फोकस?क्या हथियारों की सुरक्षा और परिवार की निगरानी के लिए सख्त नियम नहीं होने चाहिए?क्या प्रशासनिक स्तर पर ‘इमोशनल वायलेंस’ जैसे मुद्दों पर कार्ययोजना नहीं बनाई जानी चाहिए?
इस घटना ने दो जिंदगियों को लील लिया, लेकिन इसके पीछे कानून की लाचारी भी उजागर हुई है। यह सही समय है कि भारत में इमोशनल वायलेंस (Emotional Violence) और इंटिमेट पार्टनर क्राइम (Intimate Partner Crime) जैसे मामलों को गंभीरता से लिया जाए।
हर थाने में साइकोलॉजिकल हेल्प डेस्क होनी चाहिए। हर स्कूल और कॉलेज में प्रशिक्षित काउंसलर होने चाहिए। और सबसे जरूरी—हर परिवार को बच्चों के साथ भावनात्मक संवाद शुरू करना चाहिए।
हम प्रेम में अधिकार नहीं, अपनापन खोजें। जब कोई रिश्ता समाप्त होता है, तो हमें उस पीड़ा को शब्दों में व्यक्त करने का तरीका आना चाहिए—न कि उसे गोली की आवाज में खत्म करने का।
देवांशू की गलती ने दो घरों को खत्म कर दिया। दीप्ति, जो पढ़ाई कर रही थी, जिसके पास जीवन था, भविष्य था—वो महज इसलिए मार दी गई क्योंकि उसने बात करना बंद कर दिया। क्या यह समाज की हार नहीं है?
हमें यह स्वीकार करना होगा कि आधुनिक रिश्ते अब केवल शादी की चौखट से बंधे नहीं हैं। प्रेम अब युवा पीढ़ी के लिए एक भावनात्मक सत्य है। अगर हम इस सत्य से मुंह मोड़ते हैं, तो ऐसे हादसे होते रहेंगे।
हमें संवाद, स्वीकृति और समझ की संस्कृति बनानी होगी। हमें अपने बच्चों को यह सिखाना होगा कि हर अस्वीकृति जीवन का अंत नहीं होती। हमें रिश्तों की भाषा में “बंदूक” नहीं, “बातचीत” सिखानी होगी।
क्योंकि जब संवाद खत्म होता है, तब हिंसा जन्म लेती है। और जब प्रेम हिंसक हो जाए, तो वह प्रेम नहीं, पाशविकता बन जाता है।
समाज को इस पाशविक प्रेम से बचाना ही अब हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है।