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Thursday, November 27, 2025

केशव प्रसाद मौर्य का बढ़ता कद: यूपी की राजनीति में नया पावर सेंटर?

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— शरद कटियार

भारतीय जनता पार्टी (Bharatiya Janata Party) की रणनीति में अक्सर अचानक लिए गए निर्णय दूरगामी संकेत छोड़ जाते हैं। पटना में नई राजनीतिक परिस्थितियों के बीच जब नेता चुनने की जिम्मेदारी केशव प्रसाद मौर्य (Keshav Prasad Maurya) को सौंपी गई, तो यह स्पष्ट हो गया कि पार्टी उन्हें केवल उत्तर प्रदेश का डिप्टी सीएम भर नहीं मानती, बल्कि राष्ट्रीय निर्णयों में हस्तक्षेप करने योग्य नेता के रूप में तैयार कर रही है। यह वही भूमिका है जो कभी राजनाथ सिंह और फिर बाद में जेपी नड्डा जैसे नेताओं को दी गई थी। फर्क सिर्फ इतना है कि मौर्य का उभार अधिक तेज, अधिक आक्रामक और चुनावी समीकरणों से सीधे जुड़ा हुआ है।

नीतीश कुमार के शपथ ग्रहण समारोह में विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री मौर्य के साथ फोटो लेने को उत्सुक दिखे—यह दृश्य अपने आप में राजनीतिक संदेश था। भाजपा हाईकमान के गलियारों में यह आम धारणा बन चुकी है कि अमित शाह और नरेंद्र मोदी की विशेष पसंद के तौर पर मौर्य तेजी से उभर रहे हैं। जिस प्रकार रातों-रात उनका कद बढ़ा है, वह किसी सामान्य राजनीतिक प्रक्रिया का परिणाम नहीं, बल्कि एक संगठित और सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है।
यूपी की राजनीति में सामाजिक समीकरण सबसे निर्णायक भूमिका निभाते हैं।

प्रदेश की कुल आबादी का लगभग 54% हिस्सा ओबीसी है। इनमें से गैर-यादव ओबीसी लगभग 42% हैं। और मौर्य/शाक्य/कुशवाहा/सैनी वर्ग मिलकर 11–13% वोट का बड़ा समूह बनाते हैं। 2017 और 2022 दोनों विधानसभा चुनावों में बीजेपी की जीत का सबसे बड़ा आधार यही गैर-यादव ओबीसी वोटर रहे। इसका नेतृत्व सबसे प्रभावी तरीके से केशव प्रसाद मौर्य ने किया। यही वजह है कि बीजेपी उन्हें उत्तर प्रदेश में पिछड़ों का सबसे प्रमुख चेहरा बनाने में लगी है।

योगी आदित्यनाथ भले ही यूपी के सबसे ताकतवर मुख्यमंत्रीों में गिने जाते हों, परंतु उनकी जातिगत पहचान पार्टी के सामाजिक विस्तार में सीमाएं पैदा करती है। बीजेपी को चुनाव जीतने के लिए ब्राह्मणों,दलितों,और गैर-यादव पिछड़ों का व्यापक गठजोड़ बनाना पड़ता है।यह काम योगी अकेले नहीं कर सकते।यही वह जगह है जहां मौर्य की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण हो जाती है।हाईकमान ने उन्हें पटना भेजकर यह जता दिया कि उनकी तुलना अब राज्य के मंत्रियों से नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर के निर्णायक नेताओं से की जाएगी।

समाजवादी पार्टी का कोर वोट—यादव + मुस्लिम—लगभग 33–35% के आसपास है। सपा की ताकत कभी भी गैर-यादव ओबीसी में नहीं रही। यदि बीजेपी इस 42% गैर-यादव पिछड़े वर्ग को अपने साथ पक्का कर लेती है, तो सपा के लिए उत्तर प्रदेश में सत्ता हासिल करना लगभग असंभव हो जाता है।मौर्य बीजेपी को यही शक्ति देते हैं—एक व्यापक और ठोस पिछड़ा वोट बैंक। राजनीतिक विशेषज्ञ मानते हैं कि बीजेपी का यह कदम 2027 विधानसभा और 2029 लोकसभा दोनों को ध्यान में रखते हुए उठाया गया है।

यूपी में भाजपा अकेले दम पर कोई भी चुनाव जीत सकती है, लेकिन भारी बहुमत तभी आता है जब पिछड़े वर्ग का पूरा समर्थन मिले। पार्टी जानती है कि योगी हिंदुत्व का चेहरा हैं, पर मौर्य सामाजिक समीकरण और जातीय संतुलन के चेहरे बन रहे हैं। यह ‘दोहरा नेतृत्व’ बीजेपी की विजयी रणनीति का अगला चरण हो सकता है। केशव प्रसाद मौर्य का तेजी से बढ़ता कद किसी दुर्घटना या संयोग का परिणाम नहीं है।

यह एक पॉलिटिकल प्रोजेक्ट है—जिसे अमित शाह की रणनीति, मोदी का विश्वास और यूपी के सामाजिक समीकरणों की मजबूरी गढ़ रही है। पटना में मिली जिम्मेदारी ने बस इतना स्पष्ट कर दिया कि अब मौर्य को केवल प्रदेश की राजनीति में नहीं देखा जाएगा, बल्कि उन्हें भाजपा के राष्ट्रीय ओबीसी चेहरे के रूप में स्थापित किया जा रहा है। यूपी की राजनीति में यह बदलाव बहुत गहरे संकेत दे रहा है। और इन संकेतों को समझने वालों के लिए संदेश साफ है— सत्ता का समीकरण अब योगी + मौर्य के संयुक्त मॉडल से गुजरेगा।

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