विजय गर्ग
मां जी, चाय!’ बहू की मीठी आवाज़ सुभद्रा के कानों में पड़ी। चाय का पहला घूंट पीते ही उसे लगा, चाय केवल दूध से ही तैयार की गई है। सुभद्रा पुलकित हो उठी, राकेश और रीना को उसकी सेहत की कितनी चिन्ता है! शायद इस बार उसने गांव से राकेश के साथ यहां आकर कोई गलती नहीं की है। दीवार पर अपने पति की माला चढ़ी फोटो को देखते हुए वह पुरानी यादों में खो गई।
बचपन के बारे में सोचते ही शहतूत के लिए बागों की ओर दौड़ते बच्चे उसकी आंखों के आगे घूमने लगते हैं। उसे शहतूत बहुत अच्छे लगते थे, पर वह चाहकर भी नहीं खा पाती थी। उन दिनों हर वर्ष उसके भाई-बहनों की संख्या में वृद्धि हो जाती थी और उनमें से किसी एक को कमर से टिकाए उसे मां के कामों में हाथ बंटाना पड़ता था। भाइयों से बहुत ईर्ष्या होती थी। मां उन्हें बादाम और चिलगोजे खाने को देती थी। पिताजी भी मूंगफली की तरह मेवे फांका करते थे। जब वह मांगती तो कहा जाता, यह सब चीजें लड़कियों के खाने के लिए नहीं होतीं।
चौदह वर्ष की आयु में उसका विवाह हो गया था और तब से अब तक उसका समय बच्चे पैदा करने, करवाने और फिर उन बच्चों को पालने-पोसने में बीत गया था। इन्हीं बातों को सोचते-सोचते वह थक गई।
रोहित और नन्ही बिट्टी उसके पास बैठे आम खा रहे थे, पास ही राकेश खड़ा अखबार पढ़ रहा था। ‘मां, हम लोग कल बीस-पच्चीस दिनों लिए एलटीसी पर साऊथ जा रहे हैं…’ राकेश ने अखबार से आंख हटाए बिना मां से कहा। ‘तुम हमारे पीछे घर का जरा ध्यान रखना। वैसे रीना सब इन्तजाम करके जाएगी। तुम्हें हमारे पीछे कोई परेशानी नहीं होगी।’
गाढ़े दूध से तैयार चाय का आखिरी घूंट सुभद्रा को बहुत कड़वा लगा… तो इसलिए लाया गया है उसे गांव से। उधर बिट्टी गला फाड़-फाड़कर रोने लगी थी।
रीना ने चुपके से गुठली वाला भाग रोहित को दे दिया था जबकि बिट्टी काफी देर से गुठली की मांग कर रही थी। रोहित अपनी छोटी बहन के रोने की परवाह किए बिना तेजी से गुठली चूसे जा रहा था।
(विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब)