शरद कटियार
भारत आज़ादी के 78 साल बाद भी विकास के नाम पर सवालों के घेरे में खड़ा है। सड़कों से लेकर किसानों तक, टैक्स से लेकर रोजगार तक – हर जगह तस्वीर बेहद चिंताजनक है। एक ओर देश पर कर्ज का पहाड़ टूट रहा है, तो दूसरी ओर आम जनता अंधभक्ति और आडंबरों में उलझी हुई है। यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर हम कहां जा रहे हैं और यह देश किस दिशा में बढ़ रहा है।
4 लाख करोड़ का कर्ज और टूटता ढांचा
भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक केंद्र और राज्यों पर कुल कर्ज़ 180 लाख करोड़ रुपए से भी अधिक है। अकेले केंद्र सरकार का सकल कर्ज़ 155 लाख करोड़ रुपए के आसपास है (RBI रिपोर्ट, 2024)। राज्य सरकारें भी मिलकर करीब 30 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा की देनदार हैं। बुनियादी ढांचे के नाम पर सड़कें तो बन रही हैं, लेकिन उनकी उम्र एक साल से ज्यादा नहीं निकलती। भारतीय लेखा एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की 2023 की रिपोर्ट बताती है कि औसतन 35% सरकारी निर्माण कार्यों में भ्रष्टाचार या घटिया सामग्री का इस्तेमाल पाया गया।
देश में आयकरदाता कुल जनसंख्या का केवल 6% हैं। लेकिन अप्रत्यक्ष कर (जैसे जीएसटी, पेट्रोल-डीजल, खाने-पीने की चीज़ों पर टैक्स) हर गरीब और मध्यम वर्गीय नागरिक को देना ही पड़ता है।
भारत में कॉर्पोरेट टैक्स 2019 में घटाकर 22% कर दिया गया, जबकि 2014 से पहले यह 30% था।
दूसरी तरफ, गरीब रोटी-कपड़ा-तेल-सब्ज़ी पर भी 5% से 18% जीएसटी चुकाता है।
नतीजा: बड़े कॉर्पोरेट समूह टैक्स से बच निकलते हैं, जबकि गरीब सबसे ज़्यादा टैक्स के दायरे में है।
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) के अनुसार भारत के 50% से अधिक किसान कर्ज़ में डूबे हैं।
2021 की रिपोर्ट बताती है कि प्रति किसान परिवार पर औसतन 74,000 रुपए का कर्ज है।
आत्महत्याओं का आंकड़ा और भयावह है। NCRB की 2023 रिपोर्ट के मुताबिक हर दिन औसतन 28 किसान कर्ज़ और आर्थिक तंगी से मौत को गले लगाते हैं।
सरकारी ठेकों और निर्माण कार्यों में खुलेआम 35 से 40% कमीशन की बात सब जानते हैं। यही वजह है कि पुल गिरते हैं, सड़कें टूटती हैं, अस्पताल अधूरे रह जाते हैं। 2023 में विश्व बैंक ने भारत को भ्रष्टाचार नियंत्रण इंडेक्स में 180 देशों में 93वां स्थान दिया। यह सीधे-सीधे हमारे तंत्र की सच्चाई बयान करता है।
जब देश की आधी आबादी कर्ज़ में डूबी हो, बेरोजगारी दर 8% (CMIE, 2024) पर टिकी हो, तब जनता को रोजगार और शिक्षा की चिंता करनी चाहिए। लेकिन आज माहौल ऐसा है कि भीड़ मंदिरों में जयकारे लगा रही है, कभी दुर्गा पूजा, कभी गणेशोत्सव, तो कभी “जय श्रीराम” के नारों में बह रही है।
धर्म और संस्कृति महत्वपूर्ण हैं, लेकिन अंधविश्वास और झूठे आडंबरों में फंसकर आमजन अपने असली मुद्दों रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, भ्रष्टाचार और किसानों की दुर्दशा से ध्यान हटा बैठा है।
आज गरीब और मध्यमवर्गीय युवा कंपनी खोलना तो दूर, नौकरी पाने के लिए भी संघर्ष कर रहा है।
देश में स्टार्टअप इंडिया के नाम पर करोड़ों का बजट आता है, लेकिन जिन युवाओं के पास “बड़ा हाथ” नहीं है, उन्हें न फंडिंग मिलती है, न पहचान।
दूसरी ओर, नेताओं और बड़े अफसरों के बेटे सीधे bmw और मरसड़ीज़ पर सवार दिखते हैं।
यह व्यवस्था प्रतिभा नहीं, पैसों और पहुंच को सलाम करती है।
भारत की असली ताकत किसान, मजदूर, मध्यम वर्ग और युवा हैं। लेकिन आज यही वर्ग सबसे ज्यादा उपेक्षित है।
कर्ज़ के बोझ तले दबा किसान।
टैक्स से त्रस्त गरीब।
नौकरी के लिए भटकता युवा।
और भ्रष्टाचार से खोखली होती व्यवस्था।
जब तक जनता असली मुद्दों पर आवाज़ नहीं उठाएगी, तब तक “विकास” केवल कागज़ों में और “सपने” केवल अमीरों की हकीकत में रहेंगे।आज सबसे बड़ा सवाल यही है, कि हम कहां जा रहे हैं? और क्या यह वही भारत है जिसका सपना हमने देखा था?


