- “सेकेंड हैंड वाहन बाज़ार भी बुरी तरह ठप हो गया”
– क्या जवाब देगा परिवहन विभाग?
– टैक्स लिया 15 साल का, लेकिन 10 साल में ही वाहन किया गया बाहर।
– ना दूसरे राज्यों में चल सकता, ना बेच सकते, ना ही रजिस्ट्रेशन वैध।
– मध्यमवर्गीय परिवार पर दोहरी मार — महंगाई, किस्तें और अब स्क्रैप का झटका।
अनुराग तिवारी (विशेष संवाददाता)
नई दिल्ली/लखनऊ। देशभर में करोड़ों ऐसे वाहन हैं जिन्हें दिल्ली-NCR और अन्य शहरी क्षेत्रों में नीतिगत फैसलों के कारण जबरन कबाड़ में बदल दिया गया है। विशेषकर 10 वर्ष से पुराने डीजल और 15 वर्ष से पुराने पेट्रोल वाहनों पर सीधा प्रतिबंध लगा दिया गया है। इससे वो आम लोग सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं, जो वर्षों की कमाई और किस्तें चुकाकर वाहन खरीदते हैं।
सुप्रीम कोर्ट और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) के आदेशों के अनुसार, परिवहन विभाग ने इन वाहनों को “अपंजीकृत” कर कबाड़ घोषित कर दिया है। लेकिन सवाल ये उठता है कि जब इन वाहनों को खरीदा गया था, तब उनके मालिकों ने 15 साल तक के लिए रोड टैक्स जमा किया था। अब समय पूरा होने से पहले ही उन्हें सड़कों से बाहर कर देना न केवल आर्थिक नुकसान है, बल्कि यह नीति स्पष्टता की भी कमी दर्शाती है। करोड़ों वाहन मालिकों पर संकट आया है। देशभर में ऐसे लाखों नहीं, करोड़ों वाहन हैं जो उम्र के लिहाज से तो चलने लायक हैं, लेकिन दस्तावेजी रूप से “डेड” घोषित कर दिए गए हैं। इससे न सिर्फ आम आदमी प्रभावित हो रहा है, बल्कि सेकेंड हैंड वाहन बाज़ार भी बुरी तरह ठप हो गया है।
नई वाहन स्क्रैप नीति में सरकार ने 2021 में वाहन स्क्रैपेज पॉलिसी लागू की, जिसका उद्देश्य था। पुराने और प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों को हटाना, ऑटोमोबाइल सेक्टर को बढ़ावा देना, और नई तकनीक आधारित वाहनों को बढ़ावा देना। लेकिन इसमें भी शर्त ये है कि अगर 15 साल बाद वाहन फिटनेस टेस्ट में पास नहीं होता, तभी उसे स्क्रैप किया जाए। दिल्ली जैसे क्षेत्रों में तो डायरेक्ट रजिस्ट्रेशन रद्द कर दिया जा रहा है, बिना फिटनेस का अवसर दिए।
कानूनी और प्रशासनिक उलझन
वाहन स्वामी कह रहे हैं कि टैक्स 15 वर्षों का लिया गया, तो 10 साल में जब्त क्यों?
क्या केंद्र और राज्य सरकारें आपसी समन्वय से नई नीति बनाएंगी?
क्या NOC देकर वाहन को दूसरे राज्यों में चलने देना विकल्प हो सकता है?
वही अब जनहित याचिका का रास्ता खुल गया है। कई संगठनों और वाहन संघों ने इस फैसले के खिलाफ जनहित याचिका (PIL) दाखिल करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। यह मामला सीधे न्याय, नीति और पारदर्शिता से जुड़ा है। पुराने डीजल वाहन कबाड़ तो बन गए, लेकिन नीति का कबाड़ कौन उठाएगा? देश को जरूरत है स्पष्ट, व्यावहारिक और न्यायोचित वाहन नीति की — ताकि न प्रदूषण बढ़े और न आम नागरिक का विश्वास टूटे।
नीतियों के बोझ तले कुचलता आम आदमी
भारत में आम आदमी के लिए एक छोटी गाड़ी खरीदना सपना नहीं, संघर्ष है। वह EMI चुकाता है, टैक्स भरता है, बीमा करता है, और वर्षों तक वाहन की सेवा करता है। लेकिन नीति निर्धारकों की एक कलम की मार से उसकी मेहनत की कमाई कबाड़ बना दी जाती है।
नीतियों की मार — लेकिन नेताओं की चुप्पी क्यों?
देश में जब बात चुनाव की आती है, तो नेता रोजगार, महंगाई और विकास की बातें करते हैं। लेकिन जब बात ऐसी जनजीवन से जुड़ी नीतियों की आती है — तो संसद, विधानसभाएं और मंत्रीगण चुप हो जाते हैं।
NCR का प्रदूषण दिखाई दे रहा है, लेकिन उसमें मध्यम वर्गीय गाड़ियों को ही बलि का बकरा बनाया जा रहा है। बड़े उद्योग, फैक्ट्रियां, डीजल जनरेटर, निजी हेलीकॉप्टर — इनकी चर्चा क्यों नहीं होती?
नीति बदले या नजरिया?
मध्यम वर्ग के पास ना तो सत्ता है, ना आवाज़ — बस ज़िम्मेदारियां हैं।
उसे कभी गैस सिलेंडर की कीमत तो कभी EMI की किश्त मारती है। अब उसके जीवन की गाड़ी भी “कबाड़” बना दी गई।
क्या कोई नेता जवाब देगा? अब सवाल नीति का नहीं, नियति का है। जवाब जनता को चाहिए – और जल्द चाहिए।
यूथ इंडिया न्यूज विशेष संवाददाता – “यह लेख आम नागरिकों की पीड़ा को स्वर देने के लिए लिखा गया है — कृपया साझा करें, ताकि यह आवाज़ निर्णयकर्ताओं तक पहुंचे।”