शरद कटियार
Lucknow में बुधवार को जो हुआ, वह सिर्फ एक छात्र संगठन का प्रदर्शन नहीं था, बल्कि यह देश के लोकतंत्र (democracy) के माथे पर लगा सवालिया निशान था। एनएसयूआई के कार्यकर्ताओं ने चुनाव आयोग कार्यालय की बैरिकेडिंग तोड़ी, “मोदी वोट चोर” के नारे लगाए, और पुलिस से भिड़ गए। यह दृश्य जितना उग्र था, उतना ही सटीक भी—क्योंकि लोकतंत्र तब ही जीवित रहता है जब जनता सत्ता से सवाल पूछ सके।
प्रदेश अध्यक्ष अनस रहमान का यह आरोप कि नरेंद्र मोदी “वोट चोरी” करके प्रधानमंत्री बने हैं और चुनाव आयोग सरकार का “कठपुतली” बन चुका है, भारतीय राजनीति के लिए साधारण बयान नहीं है। यह उस गहरी अविश्वास की गूंज है जो आज मतपेटी से लेकर संसद तक महसूस की जा रही है। सवाल यह है कि अगर चुनाव प्रक्रिया ही संदिग्ध हो जाए, तो फिर मतदाता का विश्वास किस पर टिकेगा?
पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को घसीटकर गाड़ियों में ठूंसा और ईको गार्डन पार्क में छोड़ दिया। क्या यही है लोकतंत्र का असली चेहरा—जहां असहमति को केवल कानून-व्यवस्था का मसला मानकर दबा दिया जाए? हकीकत यह है कि सत्ता ने विरोध को बहस नहीं, बल्कि खतरा मान लिया है। चुनाव आयोग कार्यालय को छावनी में बदल देना, चारों ओर बैरिकेडिंग खड़ी कर देना और भारी पुलिस बल तैनात करना—यह दृश्य लोकतांत्रिक आत्मविश्वास का नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक डर का था। अगर सत्ता और उसकी संस्थाएं खुद को निर्दोष मानती हैं, तो फिर उन्हें सवालों से भागने की जरूरत क्यों पड़ती है?
एनएसयूआई की मांग कि राहुल गांधी द्वारा पेश किए गए “वोट चोरी” के सबूत सार्वजनिक किए जाएं, दरअसल लोकतंत्र की सबसे बुनियादी मांग है—पारदर्शिता की। लेकिन अगर सत्ता इस मांग को भी विद्रोह मानकर खारिज कर दे, तो यह संकेत है कि लोकतांत्रिक पुलों की जगह अब सिर्फ बैरिकेडिंग खड़ी की जा रही है।
सत्ता को याद रखना चाहिए—बैरिकेडिंग, पुलिस बल और गिरफ्तारियां विरोध की लहर को रोक नहीं सकतीं। असहमति की आवाज़ को बंद करने की हर कोशिश, लोकतंत्र की सांस को थोड़ा और घोंट देती है। और जब जनता यह मान ले कि उसकी आवाज़ अब सिर्फ चुनावी भाषणों में सुनी जाएगी, तो समझ लीजिए, लोकतंत्र की हत्या का ऐलान हो चुका है।
शरद कटियार
ग्रुप एडिटर
यूथ इंडिया न्यूज ग्रुप