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Thursday, March 13, 2025

शाहजहांपुर का ऐतिहासिक लाट साहब जुलूस: अंग्रेजी हुकूमत के विरोध से लेकर आज तक जिंदा परंपरा

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संजय कुमार जैन
शाहजहांपुर। उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में हर साल होली के मौके पर निकाला जाने वाला लाट साहब का जुलूस न केवल रंगों और हुड़दंग का संगम है, बल्कि यह सैकड़ों साल पुरानी ब्रिटिश हुकूमत के विरोध की जीवंत परंपरा भी है। इतिहास के पन्नों में दर्ज यह जुलूस हर साल प्रशासन और पुलिस के लिए चुनौती बना रहता है, लेकिन इसे देखने के लिए हजारों की भीड़ उमड़ती है।

कैसे शुरू हुई यह परंपरा?

होली के इस अनूठे जुलूस की जड़ें 18वीं शताब्दी से जुड़ी हैं। इतिहासकारों के अनुसार, सन् 1728 में नवाबों के शासनकाल में यह जुलूस होलिकोत्सव के रूप में निकाला जाता था। अंग्रेजों के सत्ता में आने के बाद इसे प्रतिबंधित कर दिया गया, लेकिन जनता ने इस परंपरा को नए रूप में जारी रखा। ब्रिटिश अत्याचारों के खिलाफ विरोध का प्रतीक बनकर यह जुलूस ‘लाट साहब का जुलूस’ कहलाने लगा, जिसमें एक व्यक्ति को अंग्रेज अधिकारी के रूप में पेश किया जाता है और जनता अपनी नाराजगी अभिव्यक्त करती है।

अनोखी परंपरा: जूते-चप्पलों की माला और रंगों की बारिश

यह जुलूस अपने अनूठे अंदाज के लिए जाना जाता है।
✔ एक युवक को ‘लाट साहब’ के रूप में चुना जाता है, जिसे भैंसागाड़ी पर बैठाया जाता है।
✔ गले में जूते-चप्पलों की माला पहनाई जाती है और सिर पर हेलमेट से सुरक्षा दी जाती है।
✔ पीछे-पीछे हुरियारों की टोली नाचती-गाती चलती है, रास्तेभर लाट साहब पर रंग, गुलाल, जूते-चप्पल फेंके जाते हैं।
✔ गाढ़े रंगों से भरी बाल्टियां दूसरी गाड़ी पर रखी होती हैं, जिससे लाट साहब को भिगोया जाता है।
✔ जूते-चप्पल उछालने की परंपरा अंग्रेजों के अन्याय के खिलाफ रोष प्रकट करने का तरीका था, जो आज भी जारी है।

क्यों होता है यह जुलूस प्रशासन के लिए चुनौती?

✔ जुलूस के दौरान किसी भी अराजकता से बचने के लिए कड़ी सुरक्षा की जाती है।
✔ 67 मस्जिदों और मजारों को तिरपाल से ढका गया, ताकि कोई सांप्रदायिक विवाद न हो।
✔ पूरे जुलूस मार्ग पर ड्रोन कैमरों से निगरानी और आरएएफ की विशेष टुकड़ी तैनात रही।
✔ संवेदनशील क्षेत्रों में अतिरिक्त पुलिस बल की तैनाती की गई।

दो प्रमुख जुलूस निकाले जाते हैं

1. बड़े लाट साहब का जुलूस:
➡ चौक कोतवाली से शुरू होकर रोशनगंज, बेरी चौकी, अंटा चौराहा, खिरनीबाग होते हुए बाबा विश्वनाथ मंदिर पहुंचता है।
➡ यहाँ परंपरागत रूप से कोतवाल लाट साहब को सलामी देते हैं और नेग चढ़ाते हैं।

2. सरायकाईयां से दूसरा जुलूस:
➡ यह सबसे अधिक संवेदनशील क्षेत्र से गुजरता है, इसलिए अतिरिक्त पुलिस बल तैनात रहता है।
➡ यहाँ ड्रोन कैमरों से निगरानी की गई, ताकि किसी भी स्थिति पर तुरंत नियंत्रण पाया जा सके।
स्वतंत्रता के 77 साल बाद भी यह जुलूस ब्रिटिश हुकूमत के अत्याचारों की याद दिलाता है। इतिहासकारों का मानना है कि यह सिर्फ होली का जुलूस नहीं, बल्कि गुलामी के खिलाफ खड़े होने की भावना का प्रतीक है। आज भले ही यह परंपरा रंगों और उत्सव के साथ मनाई जाती है, लेकिन इसके पीछे छिपे विद्रोह और साहस की कहानी हर पीढ़ी को याद दिलाती है कि किस तरह भारत ने संघर्ष कर आजादी हासिल की।

रंगों से सराबोर शाहजहांपुर एक बार फिर इस ऐतिहासिक परंपरा का साक्षी बना, जहां लाट साहब का जुलूस हंसी-ठिठोली के साथ प्रशासन के सुरक्षा घेरे में शांतिपूर्वक संपन्न हुआ।

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