विजय गर्ग
पर्यटन और प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने के बाद प्रधानमंत्री ने अब भारतीय वस्त्र उद्योग को नई ऊंचाइयों पर ले जाने का संकल्प लिया है। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में आयोजित निवेशकों के सम्मेलन में उन्होंने मध्य प्रदेश को कपड़ा उद्योग क्षेत्र में ‘कपास राजधानी’ बताया। इसका कारण यह है कि देश के कुल जैविक कपास उत्पादन का 25 प्रतिशत यहीं से आता है। चंदेरी, माहेश्वरी और खजुराहो जैसे क्षेत्रों में स्वदेशी साड़ियों का बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जाता है। यह उद्योग ज्ञान परंपरा और स्वदेशी उपकरणों की मदद से सदियों से चल रहा है। यदि इसमें पर्याप्त पूंजी निवेश के साथ प्रौद्योगिकी आधारित आधुनिकीकरण किया जाए तो न केवल उत्पादन बढ़ेगा, बल्कि इन उत्पादों के लिए वैश्विक बाजार भी उपलब्ध होगा।
ऋग्वेद सहित धार्मिक और ऐतिहासिक ग्रंथों के अध्ययन से पता चलता है कि भारत प्राचीन काल से ही कपास उत्पादन, कपड़ा बनाने और रंगाई में अग्रणी रहा है और इसलिए यहां कपड़े पहनने और लपेटने के कई तरीके प्रचलित रहे हैं। ऋग्वेद तथा अन्य संस्कृत ग्रंथों में भी वस्त्रों का विस्तृत वर्णन मिलता है। इन ग्रंथों में विभिन्न प्रकार की वेशभूषा का वर्णन है। भारत में भूगोल, जलवायु, ऋतु, राशि, जाति और धर्म के आधार पर वस्त्र शैलियों में विविधता है। उत्सवों, खेलों, नृत्यों और युद्ध के दौरान अलग-अलग वेशभूषा पहनी जाती थी। भारत में कपास उत्पादन और उससे वस्त्र बनाने की परंपरा पांच हजार वर्ष से भी अधिक पुरानी है।
कारीगर कपड़े बनाने के लिए चरखे पर कपास कातते थे। वे धागे और कपड़े को रंगने की तकनीक में भी कुशल थे। यह स्पष्ट है कि भारत प्राचीन काल से ही विभिन्न प्रकार के वस्त्र बनाने और पहनने में माहिर रहा है। इसीलिए इसे सूती वस्त्र उद्योग का नाम मिला। यह उद्योग अपनी विस्तृत मूल्य श्रृंखला, स्थानीय कच्चे माल की उपलब्धता और विनिर्माण कला में विशेषज्ञता के कारण विश्व के प्रमुख वस्त्र उद्योगों में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। एक ओर, छोटे कारीगर वस्त्र निर्माण में लगे हुए हैं। दूसरी ओर आधुनिक मशीनों से कपड़े बनाने वाले बड़े उद्यमी भी सक्रिय हैं। जब अंग्रेजों ने व्यापार के बहाने इस उद्योग पर अपनी नजरें गड़ाईं तो उन्होंने इस पारंपरिक हस्तकला को नष्ट कर दिया और ब्रिटेन से लाई गई मशीनों से कपड़े का उत्पादन शुरू कर दिया। 1818 में कोलकाता के पास फोर्ट ग्लूसेस्टर में पहला सूती वस्त्र उद्योग स्थापित किया गया था। इसके बाद 1854 में मुंबई में बॉम्बे स्पिनिंग मिल की नींव रखी गई। आज देश में करीब 3400 कपड़ा उद्योगों के जरिए 10 करोड़ लोग अपनी आजीविका कमा रहे हैं। इसके अलावा बड़े पैमाने पर कपड़ा उत्पादन हथकरघा, हस्तशिल्प, लघु विद्युत करघे और पारंपरिक तरीकों से भी किया जाता है।
ये लघु एवं कुटीर उद्योग स्थानीय स्तर पर लाखों लोगों को रोजगार प्रदान करते हैं। इस उद्योग में कपास, प्राकृतिक और मानव निर्मित रेशे, रेशम आधारित कपड़े और बुने हुए कपड़े शामिल हैं। भारत के कुल निर्यात में वस्त्र उद्योग का योगदान 4.5 प्रतिशत है तथा निर्यात आय में इसका योगदान 15 प्रतिशत है। हालाँकि, विदेशी वस्त्रों के आयात ने इस घरेलू उद्योग को कमजोर कर दिया है। निर्यात में भी गिरावट आई है। बांग्लादेश और वियतनाम जैसे देश कपड़ा निर्यात में भारत से आगे निकल गए हैं। मध्य प्रदेश पहले से ही वस्त्र निर्माण में अग्रणी रहा है। ग्वालियर में जे.सी. मिल्स, इंदौर में हुकमचंद मिल्स और उज्जैन में विनोद मिल्स जैसे बड़े कपड़ा उद्योग सत्तर के दशक तक सक्रिय थे। लेकिन कर्मचारी संगठनों की हड़तालों ने उन्हें लगभग नष्ट कर दिया।
बिड़ला का कपड़ा उद्योग आज भी नागदा में मौजूद है। इसके अलावा चंदेरी और महेश्वर में हाथ से चरखे चलाकर बड़े पैमाने पर साड़ियों का उत्पादन जारी है। असली चंदेरी साड़ी को जीआई टैग प्राप्त होता है, जो इसकी प्रामाणिकता और गुणवत्ता को प्रमाणित करता है। इससे ग्राहकों को नकली साड़ियों से सुरक्षा मिलती है। हाल ही में ग्वालियर में आर्यप्रताप सिंह ने वैदिक विज्ञान पर आधारित वस्त्र निर्माण का कार्य शुरू किया है। आजकल युवाओं में वास्तु और ज्योतिष के प्रति रुचि बढ़ रही है। इसे ध्यान में रखते हुए वैदिक ज्योतिष, ग्रह-नक्षत्रों के प्रतीक चिन्हों वाले वस्त्रों का उत्पादन शुरू किया गया है।
इनकी कीमत 80,000 रुपये से लेकर 4 लाख रुपये तक है। कंप्यूटर साइंस इंजीनियर और गॉड कंपनी के सीईओ आर्य प्रकाश सिंह बताते हैं कि वह ग्राहकों की जन्मतिथि, स्थान, समय और हस्तरेखा के आधार पर कपड़े बनाते हैं। इन्हें राशि पर रंग, रत्न और धातु के प्रभाव के अनुसार डिज़ाइन किया गया है। इन कपड़ों की ब्रांडिंग और मार्केटिंग सोशल मीडिया, वेबसाइट और इंस्टाग्राम के जरिए की जा रही है। आर्यप्रताप को यह प्रेरणा रामायण और उस पर बनी फिल्मों और धारावाहिकों को पढ़ने से मिली। यह हमारी अज्ञानता है कि हम पश्चिमी देशों को विज्ञान और प्रौद्योगिकी में अग्रणी मानते हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि भारत, विशेषकर ब्रिटेन, उस समय बहुत आगे था, जब ब्रिटेन ने हमारे कपड़ा उद्योग पर कब्जा कर लिया था।
उस समय हमारे कारीगर 2400 से 2500 काउंट तक के महीन धागे बनाने में माहिर थे। वे एक दाने के वजन में 29 गज लम्बा सूत तैयार कर सकते थे। आज की सबसे आधुनिक तकनीक के साथ भी केवल 400 से 600 काउंट का धागा ही उत्पादित किया जा सकता है। मुर्शिदाबाद में 2400 से 2500 काउंट के धागे बनाए जाते थे। अंग्रेजों ने इस कला को खत्म करने के लिए कारीगरों के अंगूठे काट दिए, जिसके बाद भारत में ब्रिटिश कपड़ा उद्योग की स्थापना हुई। यह तकनीक किताबों में दर्ज नहीं थी, बल्कि ज्ञान-परंपरा और घरेलू प्रशिक्षण के माध्यम से कारीगरों के दिमाग में समा गई थी।
भारतीय वस्त्र उद्योग की यह समृद्ध परंपरा अंग्रेजों के दमन से प्रभावित हुई। उनकी क्रूरता का सबूत उनकी डायरियों में मिलता है। सूरत से जो कपड़ा ब्रिटेन भेजा जाता था, वह कारीगरों द्वारा जबरन बनवाया जाता था। समय पर काम पूरा न करने पर भारी जुर्माना लगाया गया। कंपनी कारीगरों को इतना कम भुगतान करती थी कि वे वही माल डच, पुर्तगाली या अरब व्यापारियों को बेच देते।
इसलिए उन्हें बहुत ऊंची कीमत मिलती है। कारीगरों को इस हद तक मजबूर किया गया कि वे इस पेशे को छोड़ भी नहीं सके। उनकी स्वतंत्रता पर कई प्रतिबन्ध लगाये गये। इस उद्योग में निवेश से न केवल इसका पुनरुद्धार होगा बल्कि लाखों लोगों को रोजगार भी मिलेगा। यह भारत की प्राचीन समृद्धि को पुनर्जीवित करने का अवसर है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार मलोट पंजाब