शिक्षा के मंदिर बनते जा रहे हैं मुनाफे के अड्डे
शरद कटियार
फर्रुखाबाद/लखनऊ। शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू होने के बावजूद निजी स्कूलों की मनमानी थमने का नाम नहीं ले रही है। अभिभावकों से हर साल मनमाने तरीके से फीस, किताबें, वर्दी और अन्य मदों में धन वसूली की जा रही है। शिक्षा के नाम पर चल रहा यह खुला व्यापार न सिर्फ शिक्षा के मूल उद्देश्य को खत्म कर रहा है, बल्कि अभिभावकों को आर्थिक रूप से भी बर्बाद कर रहा है।
शासनादेश और सीबीएसई के नियमों की उड़ाई जा रही धज्जियां
भारत सरकार और सीबीएसई ने वर्ष 2021 में स्पष्ट रूप से सभी निजी स्कूलों को निर्देश दिया था कि वे केवल एनसीईआरटी/एनएसईआरटी की किताबों को ही लागू करें और किताबों की खरीद में अभिभावकों को स्वतंत्रता दें।
शासनादेश संख्या 233/15-7-2013-14(13)/2013 दिनांक 22 जुलाई 2013 के अनुसार कोई भी निजी विद्यालय किसी विशेष दुकान से किताबें, वर्दी या अन्य सामग्री खरीदने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। वहीं, सीबीएसई के नियम 19.1(ii) के अनुसार, “कोई भी विद्यालय किताबों, स्टेशनरी, यूनिफॉर्म आदि की बिक्री नहीं करेगा और ना ही किसी विशेष विक्रेता को बढ़ावा देगा।”
इसके बावजूद कई स्कूलों में किताबों की दुकानें खोली जा रही हैं, जहां से किताबें और यूनिफॉर्म खरीदने का दबाव बनाया जाता है।
राष्ट्रीय शैक्षिक योजना और प्रशासन संस्थान (NUEPA) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कुल 3.5 लाख से अधिक निजी स्कूल हैं, जिनमें लगभग 46% शहरी और 54% ग्रामीण क्षेत्रों में हैं।
एक औसत प्राइवेट स्कूल में एक बच्चे पर प्रति वर्ष खर्च लगभग 30,000 से 1 लाख रुपये तक बैठता है, जबकि सरकारी स्कूलों में यह खर्च 5,000 से 10,000 रुपये के बीच होता है।
यूपी शिक्षा विभाग द्वारा 2023 में कराए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि लगभग 78% अभिभावकों को हर वर्ष नई किताबें खरीदनी पड़ती हैं, जबकि उनमें से 62% ने बताया कि किताबों की सामग्री में कोई खास बदलाव नहीं था।
अभिभावकों की पीड़ा: “बच्चों की पढ़ाई व्यापार बन गई है”
अभिभावक रवि मिश्रा ने बताया कि, “बेटी को कक्षा चार में पढ़ा रहा हूं। हर साल किताबें और यूनिफॉर्म पूरी तरह से बदल जाती हैं। स्कूल के भीतर ही दुकान से किताबें खरीदने को मजबूर किया जाता है। कीमतें भी बाजार से दोगुनी होती हैं। मना करने पर बच्ची को क्लास में बैठने से रोकने की धमकी दी जाती है।”
एक अन्य अभिभावक रेणु सिंह कहती हैं, “सरकारें सिर्फ घोषणाएं करती हैं। जमीन पर प्राइवेट स्कूलों की मनमानी कोई नहीं रोकता। हमारी कमाई का बड़ा हिस्सा सिर्फ बच्चों की पढ़ाई पर नहीं, बल्कि स्कूल की शर्तों पर खर्च हो रहा है।”
इस मुद्दे पर प्राइवेट स्कूल एसोसिएशन के अध्यक्ष ने कहा, “हम एनसीईआरटी किताबें लागू करने के पक्ष में हैं, लेकिन हर क्लास के लिए जरूरी किताबें बाजार में पूरी नहीं मिलतीं। इसके कारण कई बार वैकल्पिक किताबें लेनी पड़ती हैं। हमने स्कूलों को भी निर्देश दिए हैं कि अभिभावकों पर किसी भी तरह का दबाव न डालें। यदि कोई स्कूल जबरदस्ती करता है तो कार्रवाई होनी चाहिए।”
शिक्षा विभाग के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि, “हमें लगातार शिकायतें मिलती हैं, लेकिन कई स्कूल राजनीतिक संरक्षण में चलते हैं। कार्रवाई करना मुश्किल हो जाता है। शासनादेश हैं, लेकिन पालन करवाने के लिए निगरानी और इच्छाशक्ति की कमी है।
विशेषज्ञों का मानना है कि यदि शिक्षा को वास्तविक अर्थों में समान और सुलभ बनाना है, तो सरकार को प्राइवेट स्कूलों पर सख्ती से नियंत्रण करना होगा।उचित होगा प्रत्येक स्कूल को अपनी फीस संरचना सार्वजनिक करनी चाहिए।
किताबों और यूनिफॉर्म की बिक्री पर पूर्ण प्रतिबंध लगे।
एनसीईआरटी की किताबों को अनिवार्य किया जाए।
जिला स्तर पर अभिभावक शिकायत निवारण फोरम बने।
जब तक सरकार, शिक्षा विभाग, और न्यायपालिका मिलकर निजी स्कूलों की इस बेलगाम व्यवस्था पर अंकुश नहीं लगाते, तब तक अभिभावकों का शोषण और शिक्षा का व्यावसायीकरण यूं ही चलता रहेगा।