शरद कटियार
उत्तर प्रदेश सरकार लगातार यह दावा करती रही है कि प्रदेश में महिला सुरक्षा उसकी सर्वोच्च प्राथमिकता है। तमाम योजनाएं, नीतियां और महिला सशक्तिकरण के वादे इसके प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत किए जाते हैं। लेकिन जब ज़मीनी हकीकत पर दृष्टि डालते हैं, तो कई बार इन दावों की विश्वसनीयता पर ही प्रश्नचिह्न लग जाता है। जनपद फर्रुखाबाद के शमसाबाद थाना क्षेत्र के ग्राम गदनपुर वक्स में हुई गैंगरेप की घटना और उस पर पुलिस की निष्ठुर चुप्पी उसी सच्चाई का आइना है, जो शासन-प्रशासन की संवेदनहीनता को उजागर करता है।
11 मई को शाहजहांपुर की एक युवती के साथ गैंगरेप जैसी बर्बर घटना होती है। उसका अपहरण किया जाता है, नशीला पदार्थ खिलाकर बेहोश किया जाता है, उसे बंद कमरे में कैद कर के उसके साथ तीन युवकों द्वारा दुष्कर्म किया जाता है। उसे बेल्ट से पीटा जाता है, जबरन शादी का दबाव डाला जाता है, उसकी अस्मिता और आत्मसम्मान को रौंदा जाता है। लेकिन इससे भी अधिक अमानवीय पहलू यह है कि 14 दिन बीतने के बाद भी वह न्याय से कोसों दूर खड़ी है। न मेडिकल परीक्षण हुआ, न मजिस्ट्रेट के समक्ष बयान दर्ज हुआ और न ही अब तक किसी आरोपी की गिरफ्तारी हुई।
यह कोई मामूली लापरवाही नहीं है। यह वह खामोशी है जो अपराधियों के हौसले को बढ़ाती है और पीड़िता को दोबारा पीड़ित करती है। इस मामले में फर्रुखाबाद पुलिस का रवैया इस बात का प्रतीक बन गया है कि पीड़िताओं को न्याय मिलने का रास्ता कितना कठिन, पीड़ादायक और असंवेदनशील बन चुका है। शमसाबाद थाना पुलिस ने न सिर्फ अपनी कानूनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ा है, बल्कि महिला सुरक्षा जैसे संवेदनशील मुद्दे पर शासन के दावों को भी कठघरे में खड़ा कर दिया है।
एक ओर जहां जीरो एफआईआर दर्ज की जा चुकी है, वहीं दूसरी ओर उस एफआईआर पर कोई ठोस कार्रवाई न होना बताता है कि पुलिस ने अपनी भूमिका महज़ खानापूर्ति तक सीमित रखी। ज़ीरो एफआईआर का मकसद यह होता है कि तत्काल कार्रवाई हो, मेडिकल परीक्षण कराया जाए, साक्ष्य जुटाए जाएं और अपराधियों की गिरफ्तारी सुनिश्चित हो। लेकिन यहां इन सभी बिंदुओं की खुलेआम अवहेलना की गई है।
सरकारी नियम स्पष्ट कहते हैं कि किसी पीड़िता को स्टॉप सेंटर में अधिकतम 10 दिन तक ही रखा जा सकता है। लेकिन इस मामले में पीड़िता को 14 दिन से वही रखा गया है। यह साफ दर्शाता है कि महिला कल्याण से जुड़ी नीतियों की जानकारी तक पूरी तरह लागू नहीं हो रही है। जिला प्रोबेशन अधिकारी की स्वीकारोक्ति कि “अभी कार्रवाई अधूरी है”, अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि प्रशासनिक स्तर पर समन्वय और संवेदनशीलता दोनों की भारी कमी है।
यह केवल एक कानूनी चूक नहीं है, यह उस युवती के आत्मसम्मान, उसके अस्तित्व, उसकी उम्मीदों और उसके जीवन के साथ क्रूर मज़ाक है। वह जिस पीड़ा और मानसिक आघात से गुज़र रही होगी, उसकी कल्पना भी किसी सामान्य व्यक्ति के लिए कठिन है।
जब कोई पीड़िता शिकायत लेकर थाने पहुंचती है, तो वह प्रशासन और न्याय प्रणाली पर अपने विश्वास को समर्पित करती है। लेकिन जब वही प्रणाली उसे 14 दिनों तक न्याय से वंचित रखती है, तो यह पूरे सिस्टम की सामूहिक विफलता बन जाती है।
यह घटना सिर्फ फर्रुखाबाद या उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं है। यह पूरे देश के लिए एक चेतावनी है कि हम किस दिशा में जा रहे हैं। एक तरफ हम महिला आरक्षण की बात करते हैं, बेटियों को पढ़ाने और बढ़ाने के नारे लगाते हैं, और दूसरी तरफ हम उनकी पीड़ा के समय उन्हें अकेला छोड़ देते हैं।
बलात्कार जैसे जघन्य अपराध में मेडिकल परीक्षण का समय पर होना अत्यंत आवश्यक है। यह न केवल साक्ष्य के रूप में महत्वपूर्ण होता है, बल्कि पीड़िता के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए भी जरूरी होता है। देरी के कारण साक्ष्य समाप्त हो सकते हैं, जिससे न्यायिक प्रक्रिया कमजोर पड़ जाती है। इसी प्रकार मजिस्ट्रेट के समक्ष बयान दर्ज न कराना भी न्याय में देरी का बड़ा कारण बनता है। ये चूकें न केवल कानून का उल्लंघन हैं, बल्कि यह पीड़िता के अधिकारों के साथ भी अन्याय है।
सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि इस पूरे घटनाक्रम के बाद क्या किसी पर कार्रवाई होगी? क्या शमसाबाद थानाध्यक्ष को जवाबदेह ठहराया जाएगा? क्या जिला प्रशासन अपनी भूमिका स्पष्ट करेगा? क्या पुलिस अधीक्षक इस मामले को गंभीरता से लेकर पीड़िता को न्याय दिलाने की दिशा में कोई ठोस कदम उठाएंगे?
और सबसे अहम सवाल—कब तक पीड़िताएं इस तरह सिस्टम की लापरवाही की शिकार होती रहेंगी? क्या हमारे देश की न्याय व्यवस्था इतनी बोझिल, इतनी असंवेदनशील और इतनी निर्लज्ज हो चुकी है कि एक गैंगरेप पीड़िता को न्याय के लिए भीख मांगनी पड़े?
ऐसे मामलों में स्थानीय और राष्ट्रीय मीडिया की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। जब मीडिया चुप रहती है, तो अपराधी और व्यवस्था दोनों निडर हो जाते हैं। हमें ऐसे मामलों को उजागर कर, जिम्मेदारों को कठघरे में खड़ा करना होगा।
साथ ही, जनप्रतिनिधियों की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने क्षेत्र में हो रही घटनाओं पर संज्ञान लें। वे सिर्फ चुनावी वादों तक सीमित न रहें, बल्कि पीड़ित नागरिकों के लिए वास्तविक प्रयास करें।
इस मामले को महज एक पुलिसिया लापरवाही के तौर पर नहीं देखा जा सकता। यह एक मानवाधिकार हनन है, एक संविधान के मूल्यों की उपेक्षा है, और एक समाज की आत्मा पर गहरा घाव है। यह वह समय है जब हमें केवल प्रशासन से सवाल नहीं पूछना चाहिए, बल्कि समाज के रूप में अपने भीतर झांक कर देखना चाहिए कि हम कहां खड़े हैं।
जनमानस की मांग है कि—पीड़िता का तत्काल मेडिकल परीक्षण कराया जाए।मजिस्ट्रेट के समक्ष उसका बयान रिकॉर्ड कराया जाए।सभी आरोपियों को शीघ्र गिरफ्तार कर कड़ी सजा दिलाई जाए।मामले की निष्पक्ष जांच हो और लापरवाह अधिकारियों पर कार्रवाई सुनिश्चित की जाए। पीड़िता को समुचित सुरक्षा और परामर्श सहायता दी जाए।
आज अगर हम इस युवती के साथ खड़े नहीं हुए, तो कल यह अन्याय किसी और की बेटी, बहन या पत्नी के साथ दोहराया जाएगा। हमें चुप नहीं रहना चाहिए, क्योंकि चुप्पी भी अपराध का हिस्सा बन जाती है।