फर्रुखाबाद के जहानगंज क्षेत्र में हुई 33 वर्षीय निशा सिंह की पेट्रोल डालकर हत्या की घटना सिर्फ एक परिवार का शोक नहीं है, बल्कि पूरे समाज की संवेदनाओं को झकझोर देने वाला अपराध है। एक महिला को ज़िंदा जलाकर मार देने की क्रूरता सभ्य समाज की सोच पर गहरी चोट करती है। सवाल यह है कि आखिर हम कब तक ऐसी घटनाओं को केवल “आक्रोश” और “निंदा” के दायरे में सिमटाकर भूलते रहेंगे?
मृतका के पिता ने जिस तरह से अपनी बेटी पर लगातार हो रहे उत्पीड़न की कहानी बताई, वह महिला सुरक्षा के सरकारी दावों पर बड़ा प्रश्नचिह्न है। मोबाइल पर धमकियों, जबरन रास्ता रोकने और मानसिक यातना का शिकार होने के बावजूद यदि समाज और तंत्र समय रहते कार्रवाई नहीं करता, तो अपराधियों का हौसला क्यों न बढ़े? निशा की मौत इसी लापरवाही का परिणाम है।
पुलिस ने भले ही पांच टीमें गठित कर जांच शुरू कर दी हो, लेकिन घटनास्थल और परिजनों के बयानों में विरोधाभास, डॉक्टरों की चुप्पी और पीड़िता की ओर से कोई प्रत्यक्ष बयान न मिलना, इस केस को संदेहास्पद बना देता है। यही स्थिति आमतौर पर होती है – असली सच या तो जांच की फाइलों में दब जाता है या राजनीतिक और सामाजिक दबाव में बदल दिया जाता है।
यह भी कटु सत्य है कि हर वीभत्स घटना के बाद समाज सिर्फ “न्याय चाहिए” के नारे लगाता है, मगर समय बीतते ही वही आवाज़ें धीमी पड़ जाती हैं। न्यायिक प्रक्रिया लंबी और थकाऊ होती है, और पीड़ित परिवार की चीखें धीरे-धीरे सन्नाटे में बदल जाती हैं।
आज ज़रूरत है कि इस मामले को “सिर्फ एक और केस” मानकर निपटाया न जाए। अपराधियों की गिरफ्तारी और कड़ी सजा सुनिश्चित हो, ताकि आने वाली पीढ़ियों को यह संदेश मिले कि कानून से बड़ा कोई नहीं है। साथ ही, समाज को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी – महिलाओं के खिलाफ लगातार बढ़ते उत्पीड़न को सामान्य मानकर चुप बैठ जाना, अपराधियों को अप्रत्यक्ष संरक्षण देने जैसा है।
निशा सिंह के दो छोटे बच्चे आज अपनी मां के साये से वंचित हो गए हैं। यह सिर्फ उस परिवार का दर्द नहीं है, बल्कि हम सबके लिए चेतावनी है कि यदि हम अभी भी जागे नहीं, तो अगली निशा किसी और घर की बेटी, बहन या मां हो सकती है।
अपराधियों को सख्त सजा दिलाना ही न्याय नहीं होगा, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना होगा कि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। यही असली सामाजिक और प्रशासनिक जिम्मेदारी है।