शरद कटियार
उत्तर प्रदेश के इटावा (Etawah) ज़िले के दांदरपुर गांव में कथावाचकों (storytellers) मुकुट मणि यादव और संत कुमार यादव से जुड़ा विवाद धीरे-धीरे धार्मिक-सामाजिक तनाव के साथ राजनीतिक रंग भी लेता जा रहा है। कथित छेड़खानी, फर्जी दस्तावेज और सामाजिक अपमान (social humiliation) के आरोपों ने इस मामले को बेहद संवेदनशील बना दिया है।
पुलिस ने कथावाचकों के विरुद्ध गंभीर धाराओं में मामला दर्ज किया है, जबकि खुद उनके साथ हुई मारपीट और कथित अमानवीय व्यवहार की घटना के बाद चार आरोपियों को जेल भेजा गया। ऐसे में सवाल यह उठता है कि जब पीड़ित और आरोपी दोनों पक्षों से कार्रवाई हो रही है, तो क्या प्रशासन सही दिशा में काम कर रहा है या केवल दबाव में संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा है?
विशेष रूप से जब कथावाचकों पर फर्जी आधार कार्ड और जातीय पहचान छिपाने जैसे आरोप लगते हैं, तो यह जांच का विषय बनता है, लेकिन उसी वक्त जब उन पर शारीरिक हमले होते हैं और उनके बाल काटे जाते हैं — जो कि सांस्कृतिक और व्यक्तिगत अपमान की चरम सीमा मानी जाती है — तब यह केवल कानून व्यवस्था नहीं, सामाजिक सहिष्णुता का भी सवाल बन जाता है।
इस प्रकरण के बाद अहीर समाज के एक तबके द्वारा ‘अहीर रेजिमेंट’ की मांग को लेकर गांव में प्रदर्शन और बवाल किए जाने की घटना ने स्थिति को और जटिल बना दिया है। किसी समुदाय के आत्म-सम्मान से जुड़ी भावनाएं जब सार्वजनिक रूप से आहत होती हैं, तब वह आंदोलन में बदल सकती हैं — लेकिन इस आंदोलन का हिंसक रूप लेना, पुलिस पर पथराव करना और सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाना किसी भी रूप में न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता।
समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव की प्रतिक्रिया – “भाजपा के लोगों ने अटैक किया होगा” – एक ओर प्रशासन पर सवाल उठाती है, लेकिन वहीं दूसरी ओर इससे समाधान की बजाय सियासी बयानबाज़ी अधिक प्रतीत होती है। इस गंभीर प्रकरण में सभी राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी बनती है कि वे स्थिति को भड़काने के बजाय शांति और न्याय की मांग करें।
यह मामला केवल एक कथावाचक पर छेड़छाड़ या आधार कार्ड फर्जीवाड़े का नहीं है; यह एक बड़ी सामाजिक संरचना की परतें खोलता है। यह बताता है कि जाति, धर्म, पहचान और आस्था जैसे मुद्दे किस तरह से एक साथ उलझ सकते हैं और राजनीति उसमें कितनी जल्दी प्रवेश कर सकती है। ऐसे मामलों में तटस्थ और निष्पक्ष जांच आवश्यक है, जिससे न तो किसी की धार्मिक भावना आहत हो, न ही किसी समुदाय का सम्मान।
इटावा का यह विवाद कानून और समाज के संतुलन की कसौटी है। प्रशासन को बिना किसी दबाव के निष्पक्ष कार्रवाई करनी चाहिए, राजनीतिक दलों को जिम्मेदारी से बयान देना चाहिए, और समाज को हिंसा की बजाय न्याय की राह अपनानी चाहिए। अगर हम समय रहते नहीं चेते, तो यह एक स्थानीय विवाद नहीं रहेगा, बल्कि पूरे प्रदेश की सामाजिक समरसता के लिए चुनौती बन सकता है।
शरद कटियार
प्रधान संपादक, दैनिक यूथ इंडिया