– जब कलम टूट गई, अदालतें झुक गईं और देश बंधक बना
शरद कटियार
25 जून 1975 भारतीय लोकतंत्र के इतिहास की सबसे काली तारीखों में दर्ज है। यह वह दिन था जब देश में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संविधान के अनुच्छेद 352 का हवाला देकर राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की। इस निर्णय का तात्कालिक कारण आंतरिक गड़बड़ी बताया गया, लेकिन वास्तविकता यह थी कि यह आपातकाल सत्ता के बचाव और व्यक्तिगत राजनीतिक अस्तित्व की रक्षा के लिए लगाया गया था। इस कदम ने भारत जैसे जीवंत लोकतंत्र को रातोंरात एक मौन, नियंत्रित और भयभीत राष्ट्र में बदल दिया।
दरअसल, 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रायबरेली से इंदिरा गांधी का लोकसभा चुनाव निरस्त कर दिया था और उन्हें 6 वर्षों के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया था। इस फैसले के बाद उनके पद पर बने रहने की वैधता पर सवाल उठने लगे। उसी संकट से निपटने के लिए 25 जून की रात आपातकाल लागू किया गया। राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने महज़ औपचारिकता निभाते हुए आदेश पर हस्ताक्षर कर दिए।
आपातकाल लागू होते ही देश में मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए। नागरिक स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आज़ादी, प्रेस की स्वतंत्रता और न्यायिक स्वायत्तता सब कुछ एक झटके में समाप्त कर दिया गया। हजारों की संख्या में विपक्षी नेताओं, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, छात्र नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को बिना मुकदमे के जेलों में डाल दिया गया। समाचार पत्रों पर सेंसरशिप लगा दी गई। इंडियन एक्सप्रेस और स्टेट्समैन जैसे प्रतिष्ठित अखबारों ने काली पट्टी के साथ खाली संपादकीय पेज छापकर विरोध जताया।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, करीब 1,11,000 से अधिक लोग गिरफ्तार किए गए, लेकिन असल संख्या कहीं अधिक मानी जाती है। प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को भंग कर दिया गया। डू नॉट पब्लिश लिस्ट के तहत समाचार पत्रों को यह बताया गया कि कौन-सी खबरें प्रकाशित नहीं की जा सकतीं। रेडियो और दूरदर्शन पूरी तरह सरकारी भोंपू बन चुके थे।जिम्मेदारो के नेतृत्व में जबरन नसबंदी अभियान चलाया गया, जिसमें सिर्फ 1 वर्ष में ही 76 लाख नसबंदियाँ कराई गईं जिनमें से बड़ी संख्या में लोग बिना जानकारी और सहमति के बंध्याकरण का शिकार हुए। यह मानवाधिकार उल्लंघन का एक वीभत्स उदाहरण बना। इस दौरान न्यायपालिका भी दबाव में आ गई।
ADM जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला केस (1976) में सुप्रीम कोर्ट ने 4:1 के बहुमत से यह फैसला दिया कि आपातकाल के दौरान हबीअस कॉर्पस (व्यक्ति को अदालत में प्रस्तुत करने का अधिकार) भी निलंबित किया जा सकता है। केवल जस्टिस एच. आर. खन्ना ने अल्पमत में जनपक्षीय निर्णय दिया, जो आज भी न्यायिक इतिहास में साहस का प्रतीक माना जाता है। लेकिन इस अंधकारमय काल में भी लोकतंत्र की मशाल बुझी नहीं।
जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नांडिस और मोरारजी देसाई जैसे नेताओं ने तानाशाही के खिलाफ आंदोलन खड़ा किया। जॉर्ज फर्नांडिस जैसे नेता बम विस्फोट के झूठे आरोपों में बंद किए गए, पर फिर भी वे झुके नहीं। लाखों युवा सड़कों पर उतरे। छात्र संगठनों और संघठित मजदूर संगठनों ने भूमिगत आंदोलन चलाया।
जनाक्रोश इतना व्यापक था कि मार्च 1977 में जब चुनाव कराए गए तो जनता पार्टी को भारी बहुमत मिला और इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर हो गईं। यह लोकतंत्र की जीत और सत्ता के अहंकार की पराजय का सबसे प्रबल उदाहरण बना।आपातकाल केवल इतिहास की एक तारीख नहीं है, यह लोकतंत्र की नाजुकता की चेतावनी है। यह याद दिलाता है कि जब भी सत्ता अहंकारी हो, जब भी सरकार सवालों से डरने लगे और जब भी जनता की आवाज़ को दबाने की कोशिश हो तब हमें इतिहास की यह रात याद रखनी चाहिए।
25 जून का दिन सिर्फ स्मृति का नहीं, संकल्प का दिन है। हमें सुनिश्चित करना होगा कि फिर कभी देश को ऐसे दौर से न गुजरना पड़े जब लोकतंत्र को चुप करा दिया जाए, जब संविधान की आत्मा को कैद किया जाए। देश तभी सुरक्षित रहेगा जब उसकी जनता सतर्क रहेगी, उसकी मीडिया स्वतंत्र रहेगी और उसकी न्यायपालिका निर्भीक रहेगी।
(लेखक दैनिक यूथ इंडिया के प्रधान संपादक है।)