शरद कटियार
भारतीय लोकतंत्र (indian democracy) की सबसे मज़बूत नींव हमेशा से चुनाव आयोग (Election Commission) को माना गया है। लेकिन ताज़ा घटनाक्रम ने इस नींव को ही हिला दिया है। समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने जब वोटर लिस्ट से हजारों मतदाताओं के नाम काटे जाने का आरोप लगाते हुए शपथ पत्र सौंपा, तो उम्मीद थी कि आयोग निष्पक्ष जांच करेगा। मगर हुआ ठीक उल्टा—आयोग ने ऐसा कोई एफिडेविट मिलने से ही साफ इनकार कर दिया। और इसके बाद जो दृश्य सामने आया, उसने लोकतंत्र की असलियत का पर्दाफाश कर दिया।
जौनपुर, कासगंज और बाराबंकी के जिलाधिकारी अचानक सामने आए और शिकायतों पर सफाई देने लगे। सवाल सीधा है—जब आयोग के पास कोई शिकायत पहुँची ही नहीं, तो फिर ये जिलाधिकारी किस दबाव में सफाई देने लगे? यह सक्रियता ही सबसे बड़ा सबूत है कि या तो आयोग सच दबा रहा है, या फिर डीएम सत्ता के इशारे पर अपनी भूमिका से बाहर जाकर मैदान में उतर आए। दोनों ही सूरतें लोकतंत्र के लिए शर्मनाक और खतरनाक हैं।
यह तर्क दिया गया कि मृतकों के नाम काटे गए, दोहराव वाले नाम हटाए गए। लेकिन सवाल है—मृत्यु प्रमाण पत्र कहाँ हैं? पारदर्शिता के दस्तावेज़ क्यों नहीं दिखाए गए? साफ है कि जवाबदेही की जगह लीपापोती हो रही है। दरअसल, यह पूरा प्रकरण केवल वोटर लिस्ट की गड़बड़ी का मामला नहीं है। यह संवैधानिक संस्थाओं पर राजनीतिक शिकंजे की कहानी कहता है। आज जिस तरह से जिलाधिकारियों को सामने लाकर चुनाव आयोग की झूठी सफाई पर मुहर लगवाई जा रही है, उससे जनता के मन में यही सवाल उठ रहा है—क्या चुनाव आयोग अब सत्ता का मुखपत्र बन चुका है?
अखिलेश यादव का यह कहना बिल्कुल सटीक है कि यदि आयोग और जिलाधिकारियों के बयान इतने विरोधाभासी हैं, तो सच्चाई केवल न्यायिक जांच से ही सामने आ सकती है। अदालत को स्वतः संज्ञान लेना चाहिए। क्योंकि यदि चुनाव कराने वाली संस्था की साख ही संदिग्ध हो जाएगी, तो जनता वोट डालने के अधिकार पर कैसे भरोसा करेगी? लोकतंत्र केवल सत्ता के गलियारों का खेल नहीं है, बल्कि जनता का विश्वास है। और जब यह विश्वास टूटता है, तो लोकतंत्र की असली हार वहीं से शुरू हो जाती है।
शरद कटियार
ग्रुप एडिटर
यूथ इंडिया न्यूज ग्रुप