आभास मिश्रा की लेखनी पर एक दृष्टि
“दो जून की रोटी”—यह सिर्फ एक मुहावरा नहीं, बल्कि भारतीय समाज के सबसे बुनियादी और गहरे संघर्ष का प्रतीक है। आभास मिश्रा की यह चिंतनशील और मार्मिक रचना, हमें रोटी के बहाने ज़िंदगी के हर रंग को छूने पर मजबूर कर देती है।
लेखक ने ‘जून’ को तारीख़ नहीं, बल्कि “वक्त” के रूप में परिभाषित कर एक भाषाई उलटबाँसी के ज़रिए हमारी चेतना को झकझोरा है। ‘रोटी’ को सिर्फ खाद्य नहीं, बल्कि आत्म-सम्मान, संघर्ष और अस्तित्व की पूर्ति का प्रतीक बताया गया है।
मिश्रा जी ने साहित्य, सिनेमा और समाज को जोड़ते हुए ‘रोटी’ की सांस्कृतिक और भावनात्मक व्याख्या की है—1979 की फिल्म “दो जून की रोटी” से लेकर प्रेमचंद की कहानियों तक, ‘होरी’, ‘हल्कू’ और ‘घीसू-माधव’ जैसे पात्रों का हवाला देकर उन्होंने यह जताया कि रोटी केवल पेट भरने का साधन नहीं, बल्कि इंसान के होने की सबसे बुनियादी ज़रूरत है।
इस लेख में “राजनीतिक रोटियां”, “मां के हाथ की रोटी”, “ससुराल की रोटी”, “भीख की रोटी”, और “तोड़ी जाने वाली मुफ्त की रोटी” जैसे विविध बिंबों के माध्यम से रोटी के अलग-अलग स्वाद और सामाजिक संदर्भों को उजागर किया गया है।
यह रचना हमें बताती है कि ‘रोटी’ एक साधारण वस्तु होते हुए भी असाधारण अर्थों से भरपूर है—और इसे महसूस करने के लिए संवेदनशील हृदय की ज़रूरत होती है।
“दो जून की रोटी” सिर्फ एक ज़रूरत नहीं, बल्कि सभ्यता, समाज और संस्कार की बुनियाद है। आभास मिश्रा की लेखनी इस रोटी को एक काव्यात्मक श्रद्धांजलि के रूप में प्रस्तुत करती है। यह निबंध हमें बार-बार लौटकर उस भूख की याद दिलाता है जो सिर्फ पेट की नहीं, आत्मा की भी होती है।