— प्रशांत कटियार
जब उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में एक-एक स्कूल बंद होने लगे, तो कुछ बच्चों ने साहस दिखाया। उन्होंने किताबों की जगह कोर्ट के दरवाज़े खटखटाए—इस उम्मीद के साथ कि शायद न्यायपालिका उनका भविष्य बचा ले। उन्होंने कहा, “हमें पढ़ना है, हमें स्कूल चाहिए।”
यह वही देश है, जहाँ संविधान के अनुच्छेद 21-A में हर 6 से 14 वर्ष के बच्चे को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का मौलिक अधिकार दिया गया है।
यह वही देश है, जहाँ हर नेता मंच से बच्चों के भविष्य की दुहाई देता है।
तो फिर सवाल उठता है—जब बच्चों ने अपने हक के लिए आवाज़ उठाई, तो सिस्टम ने क्यों आंखें मूंद लीं?
सरकार पहले ही स्कूलों को संसाधनों के अभाव, शिक्षकों की कमी या अन्य बहानों के आधार पर बंद कर रही थी। अब न्यायपालिका का यह रवैया भी उस संवेदनहीन व्यवस्था की एक और कड़ी बन गया है, जो कमजोर की आवाज़ सुनने को तैयार नहीं।
यह फैसला सिर्फ एक न्यायिक निर्णय नहीं है—यह एक पीढ़ी की उम्मीदों पर चोट है। यह बताता है कि जब एक बच्चा अपने भविष्य के लिए खड़ा होता है, तो उसे तंत्र से नहीं, दीवार से टकराने जैसा अनुभव होता है।
क्या हम इतने निष्ठुर हो गए हैं कि नन्हें बच्चों की करुण पुकार भी हमें झकझोर नहीं पाती?
हम चुप हैं, इसलिए स्कूल बंद हो रहे हैं।
हम चुप हैं, इसलिए शिक्षा का अधिकार मज़ाक बन गया है।
आज यदि हमने यह नहीं पूछा कि बच्चों को स्कूल क्यों नहीं मिल रहे, तो कल इतिहास हमें माफ़ नहीं करेगा।
यह खामोश रहने का नहीं, आवाज़ उठाने का समय है।
यह एक याचिका नहीं, एक जनआंदोलन का आह्वान है।
शिक्षा सिर्फ किताबें नहीं, यह बच्चों का सपना है—और सपनों को मरने नहीं दिया जा सकता।
प्रशांत कटियार