शरद कटियार
भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ (Dhankhar) का पद से अचानक इस्तीफा (resignation) देना न केवल संवैधानिक व्यवस्था के लिहाज से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसके राजनीतिक निहितार्थ भी दूरगामी हो सकते हैं। उन्होंने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देकर राष्ट्रपति को अपना त्यागपत्र सौंपा, मगर सवाल यह उठता है कि क्या यह फैसला सचमुच केवल शारीरिक अस्वस्थता के चलते लिया गया है, या फिर पर्दे के पीछे कोई गहरी राजनीतिक हलचल है?
जिस समय संसद का मानसून सत्र चल रहा हो, उस समय देश के दूसरे सर्वोच्च संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति का पद छोड़ देना एक सामान्य घटना नहीं मानी जा सकती। यह सत्तापक्ष और विपक्ष—दोनों के लिए एक राजनीतिक झटका है। सत्र के दौरान उपराष्ट्रपति की भूमिका, जो राज्यसभा के सभापति के रूप में होती है, बेहद महत्वपूर्ण होती है। ऐसे में उनका जाना सवाल खड़े करता है।
धनखड़ हाल के महीनों में कई मुद्दों पर सरकार के पक्ष में मुखर रहे, लेकिन कभी-कभार उनके बयानों में ऐसी झलक भी दिखी जो व्यवस्था पर सवाल करती थी। क्या सत्ता के भीतर असहमति के स्वर मजबूत हो रहे थे? क्या उपराष्ट्रपति और सत्ता के शीर्ष के बीच संवादहीनता या टकराव पनप रहा था? ऐसे प्रश्न अब उठने लाजिमी है।
भारत के लोकतंत्र में उपराष्ट्रपति का पद केवल औपचारिकता नहीं है। यह पद संवैधानिक संतुलन का प्रतीक है। यदि ऐसे महत्वपूर्ण पद से इस्तीफा केवल स्वास्थ्य कारणों तक सीमित है, तो पारदर्शिता के तहत विस्तृत विवरण सामने आना चाहिए ताकि जनविश्वास बना रहे। वहीं अगर कारण राजनीतिक हैं, तो देश को यह जानने का अधिकार है।
अब चुनाव आयोग को नए उपराष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया तय करनी होगी। मगर इस घटनाक्रम ने यह ज़रूर जता दिया कि भारतीय राजनीति में कुछ भी पूर्वनिर्धारित नहीं होता। हर निर्णय के पीछे एक गहरी पृष्ठभूमि हो सकती है, जिसे समझना जरूरी है। निष्कर्षत,जगदीप धनखड़ का इस्तीफा एक संवेदनशील मोड़ है। यह आने वाले राजनीतिक घटनाक्रमों की ओर इशारा करता है और लोकतंत्र के प्रहरी के रूप में मीडिया, नागरिक समाज और बुद्धिजीवियों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे इस इस्तीफे के इर्द-गिर्द उठ रहे धुंधलकों को साफ़ करने का प्रयास करें।
शरद कटियार
ग्रुप एडिटर
यूथ इंडिया न्यूज ग्रुप