– राष्ट्रीय प्रगतिशील फोरम की परिचर्चा में गूंजे पर्यावरण बचाने के संकल्प, विशेषज्ञों ने चेताया-अब भी नहीं जागे तो भविष्य अंधकारमय है
कायमगंज, फर्रुखाबाद: विकास की अंधी दौड़ में इंसान ने भले ही तकनीक, साधन और शहरीकरण के नए कीर्तिमान स्थापित किए हों, लेकिन इसके पीछे छिपी पर्यावरणीय तबाही (environmental disaster) की कीमत चुकाने को अब पूरी पृथ्वी मजबूर हो रही है। विश्व पर्यावरण दिवस (world environment day) की पूर्व संध्या पर आयोजित परिचर्चा में वक्ताओं ने इसी चिंता को स्वर देते हुए कहा कि इस विनाश के लिए केवल सरकारें या उद्योगपति नहीं, बल्कि हम सभी नागरिक कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं।
परिचर्चा का आयोजन राष्ट्रीय प्रगतिशील फोरम द्वारा किया गया था, जिसमें शिक्षाविदों, समाजसेवियों और बुद्धिजीवियों ने भाग लेकर पर्यावरण संरक्षण पर गंभीर मंथन किया। मुख्य वक्ता प्रोफेसर रामबाबू मिश्र रत्नेश ने कहा कि आज जो कुछ भी “विकास” के नाम पर हो रहा है, वह वास्तव में “महाविनाश” का सुनियोजित प्रारूप है। सड़कें, रेलमार्ग, भारी उद्योग, और अनियोजित नगर विस्तार जिस तेजी से हो रहे हैं, उससे वनों की कटाई, पहाड़ियों का उत्खनन और प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी बेहद चिंताजनक है।
उन्होंने कहा- “प्रकृति के साथ किया गया यह अन्याय अब लौटकर हम पर ही कहर बनकर टूट रहा है। जो पेड़ हमें जीवनदायी ऑक्सीजन देते हैं, उन्हें जड़ से उखाड़ा जा रहा है।” प्रोफेसर मिश्र ने प्राचीन ऋषियों की पर्यावरण चेतना को याद करते हुए कहा कि उन्होंने वृक्षों को शिव की जटाओं की संज्ञा दी थी, जो स्वयं विष पीकर अमृतमयी वायु देते हैं। आज आधुनिक मानव उस अमृत को छीनकर केवल विष छोड़ने का काम कर रहा है।
हंसा मिश्रा ने पर्यावरण संकट को ‘परिणाम’ बताया न कि ‘कारण’। उन्होंने स्पष्ट किया कि हम सिर्फ बाहरी कारकों को दोषी ठहराकर नहीं बच सकते। ओजोन परत में हो रही क्षति, समुद्र और धरती का बढ़ता तापमान, गिरता भूजल स्तर और पिघलते ग्लेशियर — ये सभी चेतावनी हैं कि हमारी जीवनशैली, उपभोग की आदतें और लालच अब खतरे की सीमाओं को पार कर चुके हैं।
उनका सवाल था- “क्या हम आंखें मूंदकर उस दिन का इंतजार कर रहे हैं, जब सांस लेने के लिए ऑक्सीजन सिलेंडर हमारी अनिवार्यता बन जाए?” पूर्व प्रवक्ता ईश्वर दयाल दीक्षित ने कहा कि जब तक जनसहभागिता नहीं होगी, सरकारी पौधारोपण कार्यक्रम सिर्फ रिपोर्टों की शोभा बनकर रह जाएंगे। उन्होंने कहा- “पेड़ लगाने से ज़्यादा ज़रूरी है उन्हें बचाना, उनका पालन-पोषण करना और उन्हें हमारी संस्कृति का हिस्सा बनाना।”
पूर्व प्रधानाचार्य अहिवरन सिंह गौर ने कहा कि प्रकृति हमारे जीवन और जीविका का आधार है, लेकिन मनुष्य की अनियंत्रित तृष्णा अब पर्यावरण के लिए घातक बन चुकी है। “हर नया मॉल, हर नया हाइवे, हर नया कंक्रीट जंगल — ये सब विकास का भ्रम हैं, जो हमारी मूल ज़रूरतों की कीमत पर खड़े किए जा रहे हैं।” प्रधानाचार्य शिवकांत शुक्ल ने कहा कि यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम आने वाली पीढ़ियों के लिए स्वस्थ पर्यावरण, स्वच्छ हवा और शुद्ध जल छोड़कर जाएं।
उन्होंने कहा- “हम ऐसा प्रयास करें कि हमारे बच्चे प्रदूषण रहित धरती पर खेलें, शुद्ध हवा में सांस लें और जहरीले रसायनों से रहित अन्न खाएं।” शिक्षक नेता जे.पी. दूबे ने इस बात पर जोर दिया कि जब तक आम नागरिक स्वयं को इस संकट का हिस्सा नहीं मानेगा, तब तक कोई सरकार, कोई अंतरराष्ट्रीय समझौता या कोई NGO पर्यावरण को बचा नहीं सकता। “एक-एक व्यक्ति को जागरूक होकर छोटे-छोटे कदम उठाने होंगे — प्लास्टिक का बहिष्कार, जल संरक्षण, पौधारोपण, और ऊर्जा की बचत जैसे प्रयासों से ही बदलाव आएगा।”
कवि वी.एस. तिवारी ने कहा कि जब तक हमारी सोच प्रदूषित है, तब तक वातावरण को शुद्ध कर पाना संभव नहीं। उन्होंने कहा — “अगर हम लालच, उपभोग, प्रतियोगिता और दिखावे की मानसिकता से नहीं निकलेंगे, तो धरती का हर रंग धीरे-धीरे धूसर होता जाएगा।”


