भारतीय लोकतंत्र में राजनेताओं की सुरक्षा न केवल एक प्रशासनिक आवश्यकता है, बल्कि यह राजनीतिक संतुलन और विचारधारा की सुरक्षा का प्रतीक भी बन चुकी है। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी (सपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव की ‘जेड प्लस’ श्रेणी की एनएसजी सुरक्षा हटाया जाना और उसके बाद करणी सेना द्वारा सपा नेताओं पर हुए हमलों ने एक बार फिर यह प्रश्न खड़ा कर दिया है कि क्या देश में लोकतंत्र की मूल भावना सुरक्षित है? यह सम्पादकीय इसी संदर्भ में एक विश्लेषणात्मक दृष्टि प्रस्तुत करता है, जो कि आंकड़ों, घटनाओं और राजनीतिक पृष्ठभूमि के आलोक में लिखा गया है।
साल 2012 में जब अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, तो उन्हें केंद्र सरकार की ओर से ‘जेड प्लस’ श्रेणी की सुरक्षा प्रदान की गई। इस सुरक्षा में 22 एनएसजी कमांडो शामिल थे, जो अत्याधुनिक हथियारों से लैस थे। एनएसजी (नेशनल सिक्योरिटी गार्ड) आमतौर पर आतंकी खतरे की स्थिति में दी जाने वाली उच्च स्तरीय सुरक्षा है। लेकिन जुलाई 2019 में केंद्र सरकार द्वारा अखिलेश यादव की एनएसजी सुरक्षा हटाने का निर्णय लिया गया।
सरकार का तर्क था कि यह निर्णय खुफिया रिपोर्टों और खतरे के स्तर के पुनर्मूल्यांकन के आधार पर लिया गया है। गृह मंत्रालय ने बताया कि एक व्यापक समीक्षा के बाद लगभग 130 से अधिक वीआईपी की सुरक्षा में कटौती या समाप्ति की गई है। इनमें लालू प्रसाद यादव, मायावती और अखिलेश यादव जैसे बड़े नेता शामिल थे। इनकी सुरक्षा अब राज्य पुलिस या सीआरपीएफ द्वारा की जा रही है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह फैसला राजनीतिक संतुलन को बिगाड़ने वाला है। अखिलेश यादव एक प्रमुख विपक्षी नेता हैं, और उनकी सुरक्षा का कमजोर होना केवल उनकी व्यक्तिगत सुरक्षा को ही खतरे में नहीं डालता, बल्कि यह पूरे विपक्षी तंत्र को एक भय और असुरक्षा के वातावरण में धकेल देता है।
2019 से लेकर अब तक अखिलेश यादव विभिन्न आंदोलनों, जनसभाओं और रैलियों में बीजेपी सरकार की नीतियों की कटु आलोचना करते रहे हैं। किसान आंदोलन, अग्निपथ योजना, महंगाई, बेरोजगारी, आरक्षण जैसे मुद्दों पर उन्होंने सरकार को कठघरे में खड़ा किया है। ऐसे में उनकी सुरक्षा में कटौती को केवल प्रशासनिक निर्णय मानना मुश्किल प्रतीत होता है।
अभी हाल में आगरा में सपा सांसद रामजी लाल सुमन के घर पर करणी सेना के कार्यकर्ताओं ने हमला कर दिया। आरोप है कि उन्होंने राणा सांगा पर टिप्पणी की थी, जिसे करणी सेना ने जातीय अपमान के रूप में देखा। यह हमला केवल सांसद के खिलाफ नहीं था, बल्कि एक राजनीतिक दल और दलित समुदाय के प्रतिनिधि के खिलाफ था।
सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इस घटना की कड़ी निंदा करते हुए इसे दलित समाज और विपक्षी विचारधारा पर हमला बताया। उन्होंने कहा कि बीजेपी सरकार जातिवाद और हिंसा को बढ़ावा दे रही है और विपक्ष की आवाज को दबाना चाहती है।
गौरतलब है कि करणी सेना का नाम पहले भी कई विवादों में आ चुका है। 2018 में फिल्म ‘पद्मावत’ के विरोध में उन्होंने पूरे देश में हिंसा फैलाई थी। उनके कार्यकर्ताओं ने स्कूल बसों तक को नहीं बख्शा था। ऐसे संगठन अगर खुलेआम विपक्षी नेताओं पर हमले कर रहे हैं और पुलिस मूकदर्शक बनी हुई है, तो यह एक खतरनाक संकेत है। भारत में लगभग 350 से अधिक नेताओं को विशेष सुरक्षा प्राप्त है।
केवल 2023 में केंद्र सरकार ने 70 से अधिक नेताओं की सुरक्षा का स्तर घटाया या हटाया। वर्ष 2022 में संसद में एक सवाल के जवाब में बताया गया था कि वीआईपी सुरक्षा पर हर साल लगभग 600 करोड़ रुपये खर्च होते हैं। एनएसजी सुरक्षा केवल 17 नेताओं को प्राप्त थी, जिनमें से अधिकांश सत्तारूढ़ दल से संबंधित हैं।
विपक्षी नेताओं की सुरक्षा घटाने के मामलों में पारदर्शिता का अभाव देखा गया है।
अखिलेश यादव न केवल यूपी की राजनीति में बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी एक सशक्त विपक्षी नेता के रूप में उभरे हैं। उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2022 के विधानसभा चुनावों में सपा को 111 सीटें मिलीं, जबकि 2017 में यह संख्या केवल 47 थी।
अखिलेश यादव की नीतियां युवाओं, किसानों और पिछड़े वर्गों के बीच तेजी से लोकप्रिय हो रही हैं। वे भाजपा की हिन्दुत्ववादी राजनीति के जवाब में समावेशी समाजवाद का एजेंडा सामने रख रहे हैं। यही कारण है कि वे लगातार हमले के केंद्र में बने हुए हैं।
जब विपक्षी नेताओं की सुरक्षा कम की जाती है, तो यह संकेत देता है कि सरकार आलोचना को पसंद नहीं कर रही। लोकतंत्र में सत्ता और विपक्ष दोनों महत्वपूर्ण स्तंभ होते हैं। अगर विपक्ष को डराया, धमकाया या चुप कराया जाता है, तो लोकतंत्र कमजोर होता है।
यह केवल एक व्यक्ति की सुरक्षा का मामला नहीं है, बल्कि यह एक विचारधारा की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा का मामला है।
इस पूरे प्रकरण में एक और चिंताजनक बात मीडिया की चुप्पी रही है। मुख्यधारा की मीडिया ने अखिलेश यादव की सुरक्षा हटाए जाने या सपा सांसद के घर हुए हमले को बहुत कम जगह दी। यह भी एक प्रकार का ‘सॉफ्ट सेंसरशिप’ है, जो लोकतंत्र के लिए घातक है। जब मीडिया सत्ता के पक्ष में खड़ी हो जाए और विपक्ष की आवाज को नजरअंदाज करे, तो यह लोकतांत्रिक असंतुलन को बढ़ावा देता है।
इस समय विपक्षी दलों को एकजुट होकर सरकार पर दबाव बनाने की जरूरत है कि वह सुरक्षा जैसे मुद्दों का राजनीतिकरण न करे। लोकतांत्रिक संस्थानों की रक्षा के लिए सड़कों पर उतरना, संसद में आवाज उठाना और न्यायिक हस्तक्षेप की मांग करना जरूरी है।
अखिलेश यादव जैसे नेताओं को चाहिए कि वे जनसंपर्क अभियान चलाकर इस मुद्दे को जनता के सामने लाएं और समझाएं कि यह केवल उनकी सुरक्षा का नहीं, बल्कि हर आम नागरिक के अधिकारों का प्रश्न है।
अखिलेश यादव की एनएसजी सुरक्षा हटाना और करणी सेना के हमले लोकतंत्र की उस परीक्षा की ओर संकेत कर रहे हैं, जिसमें सत्ता पक्ष द्वारा विपक्ष को डराने की कोशिश हो रही है। यदि इस तरह की घटनाओं को सामान्य मान लिया गया, तो आने वाले समय में लोकतंत्र केवल एक दिखावा बनकर रह जाएगा।
यह आवश्यक है कि नागरिक समाज, मीडिया, न्यायपालिका और राजनीतिक दल इस विषय पर गंभीरता से विचार करें और लोकतंत्र को एक विचार, एक प्रणाली और एक अधिकार के रूप में संरक्षित रखें।