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Wednesday, February 5, 2025

धार्मिक स्थलों/आयोजनों में भीड़ और भगदड़ के पिछले मामलों सबक न लेना, किसकी गल्ती

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अशोक भाटिया, मुंबई

तिरुपति मंदिर में बैकुंठ द्वार दर्शन टिकट केंद्र के पास मची भगदड़ (Stampedes) से हुए हादसे ने एक बार फिर खासतौर से आराधना स्थलों व सामाजिक-धार्मिक आयोजनों में बदइंतजामी को उजागर किया है। आंध्रप्रदेश के तिरुपति मंदिर में टोकन लेने के लिए उमड़े श्रद्धालुओं में मची अफरा-तफरी जानलेवा साबित हुई। इस भगदड़ में जान गंवाने वालों के परिजनों को मुआवजा व घटना की जांच के आदेश की रस्म अदायगी उसी तरह हुई है, जिस तरह ऐसे हर हादसे में होती है। लेकिन, सच तो यही है कि ऐसे हादसों से कभी कोई सबक नहीं लिया जाता। तिरुमला तिरुपति देवस्थानम ने बैकुंठ एकादशी के अवसर पर दस दिन तक विशेष दर्शन की व्यवस्था की थी। ये दर्शन 10 से 19 जनवरी तक बैकुंठ द्वार से होने थे। इसके लिए स्पेशल दर्शन टोकन जारी किए जाने थे। हादसे की वजह प्रथम दृष्टया यही मानी जा रही है कि टोकन वितरण के इंतजाम वहां उमड़ी भीड़ को देखते हुए अपर्याप्त थे। टोकन 9 जनवरी सुबह पांच बजे से मिलने वाले थे। भीड़ टिकट केंद्रों पर इकट्ठा होने लगी। हर कोई जल्दी टिकट पाना चाहता था। यदि भीड़ को नियंत्रित नहीं किया जाए तो हादसे की आशंका रहती ही है।

पहले भी भीड़भाड़ वाले स्थलों खासकर धार्मिक आयोजनों या धार्मिक स्थलों पर ऐसे हादसे होते रहे हैं। जिसके बाद जांच और कार्रवाई तो होती है पर कोई जिम्मेदार सबक लेता नहीं दिखाई देते है। कई हादसों की तो रिपोर्ट ही सार्वजानिक नहीं होती है ।दिल्ली से करीब 200 किलोमीटर दूर उत्तरप्रदेश के हाथरस में बाबा नारायण हरि साकार उर्फ भोले बाबा के सत्संग में मची भगदड़ में 121 लोगों की मौत हो गई थी । उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस भगदड़ की न्यायिक जांच कराने का निर्णय लिया था पर बाद में क्या हुआ भगवान को मालूम । अब यह सवाल ,सवाल ही रह गया है कि हाथरस भगदड़ पर गठित होने वाली कमेटी की जांच रिपोर्ट सार्वजनिक होगी या नहीं।

आमतौर पर धार्मिक आयोजनों या धर्मस्थलों पर भारी भीड़ उमड़ती है। गहरी आस्था के चलते लोग अपने आराध्य के दर्शन करने या उनके बारे में सत्संग-प्रवचन सुनने के लिए बड़ी संख्या में पहुंचते हैं। एक जनवरी 2022 को माता वैष्णो देवी के दर्शन के लिए इतनी बड़ी संख्या में श्रद्धालु उमड़ पड़े थे, जिससे भगदड़ मच गई थी। इस हादसे में 12 लोगों की जान चली गई थी, जबकि एक दर्जन घायल हुए थे।

ऐसे ही महाराष्ट्र के सतारा में साल 2005 की 25 जनवरी को मंधारदेवी मंदिर में सालाना तीर्थयात्रा के दौरान मची भगदड़ में 340 से अधिक श्रद्धालुओं की कुचलने से मौत हो गई थी। तीन अक्तूबर 2014 को पटना के गांधी मैदान में दशहरा समारोह के समाप्त होने के बाद भगदड़ में 32 जानें गई थीं। चार मार्च 2010 को उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में स्थित मनगढ़ में कृपालु महाराज के राम जानकी मंदिर में मची भगदड़ में 63 लोगों की जान चली गई थी।
पटना में गंगा के तट पर 19 नवंबर 2012 को छठ पूजा के दौरान अचानक अस्थायी पुल ढहने से भगदड़ मच गई थी। इसमें 20 लोगों की मौत हो गई थी। इससे पहले आठ नवंबर 2011 को हरिद्वार में गंगा किनारे हरकी पैड़ी पर मची भगदड़ में कम से कम 20 लोगों की जान चली गई थी।

भारी भीड़ के कारण भगदड़ मचने के और भी कई उदाहरण हैं। इसके लिए कहीं न कहीं इंतजामों की कमी भी जिम्मेदार होती है। वास्तव में लोग अपनी-अपनी आस्था के कारण धार्मिक स्थलों या आयोजन में शामिल होना चाहते हैं और इसके लिए वे किसी बात की परवाह नहीं करते। ऐसे में जरा सी भी ऊंच-नीच भगदड़ का कारण बन जाती है। भारी भीड़ के बीच छोटी सी अफवाह भी बड़ा रूप ले लेती है। साल 2011 की 14 जनवरी को केरल के इडुक्की जिले में एक जीप सबरीमाला मंदिर में दर्शन कर रहे श्रद्धालुओं से टकरा गई थी। इसके बाद ऐसी अफवाह फैली, जिससे भगदड़ मच गई और इसमें 104 श्रद्धालुओं की जान चली गई थी।

देश के कई धार्मिक स्थलों के परिसर तो काफी बड़े हैं पर मुख्य दर्शन या पूजा स्थल काफी छोटे हैं। इसमें एक साथ भीड़ का रेला आता है तो धक्के के कारण लोग एक-दूसरे के ऊपर चढ़ने लगते हैं। इस दौरान लोग खुद के शरीर को ही नियंत्रित नहीं कर पाते हैं। ऐसे में अगर एक व्यक्ति भी भीड़ में गिर जाता है तो लोग चाहते हुए भी खुद को रोक नहीं पाते हैं और उस पर चढ़ जाते हैं।

नतीजा यह होता है कि भीड़ में किसी के गिरने, बेहोश होने या मौत की अफवाह फैलती है और बचने के लिए लोग भागने लगते हैं। भीड़ में शामिल लोग, खासकर बुजुर्ग, बच्चे और महिलाएं इस भगदड़ का सबसे ज्यादा शिकार होते हैं। इसके लिए स्थानीय प्रशासन भी कहीं न कहीं जिम्मेदार होता है, जो आस्था के आगे हाथ खड़े कर देता है। छोटे स्थल पर अधिक लोगों की भीड़ बढ़ने पर भी वह लोगों को रोकता नहीं है।

हाथरस के मामले में भी ऐसा ही देखने को मिल रहा है। बताया जा रहा है कि हाथरस में अनुमति और आकलन से कहीं ज्यादा भीड़ पहुंच गई थी। इसके बावजूद प्रशासन तमाशबीन बना रहा और न तो आयोजन निरस्त किया और न ही लोगों को रोकने की कोशिश की।

धार्मिक आयोजन हों या अन्य कोई आयोजन, जिसमें ऐसी हस्तियां पहुंचती हैं, जिनके कारण भारी भीड़ इकट्ठा हो सकती है तो आयोजक खुद को वीआईपी से भी बड़ा मानने लगते हैं। इसके कारण वे लोगों के साथ मनमानी करते हैं। उन्हें रोकते-टोकते हैं। इसके कारण लोगों में गुस्सा पनपने लगता है और यह किसी न किसी रूप में फूटता है। कई बार पत्थरबाजी और तोड़फोड़ होती है तो कई बार वीआईपी के लिए बनाए गए मंच आदि पर भीड़ चढ़ जाती है।

मौसम का भी ऐसे आयोजनों के दौरान भगदड़ का अहम योगदान होता है। सर्दी, गर्मी हो या फिर बारिश का मौसम भारी भीड़ के कारण आयोजन स्थल पर उमस होती ही है। भीषण सर्दी में भी भीड़ के बीच लोगों के पसीना निकलने लगता है। इससे बचने के लिए वे बाहर निकलने की कोशिश करते हैं। अगर गर्मी का मौसम हो तो उमस उन्हें बेचैन करने लगती है। आयोजन अगर बंद स्थान पर हो रहा हो और ठंडी हवा की व्यवस्था न हो तो हर कोई परेशान हो जाता है। खुले में हो रहे आयोजन के दौरान जरा सी बारिश होने या बूंदें पड़ने पर ही लोग भागने लगते हैं।

गौरतलब है कि जोधपुर के मेहरानगढ़ किले में हुए हादसे के अब 16 साल बीत चुके हैं। हाथरस वाले हादसे की तरह ही मेहरगढ़ दुखांतिका की जांच के लिए हाई कोर्ट के रिटायर जज जस्टिस जसराज चोपड़ा की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन हुआ था। लेकिन आपको यह जानकर हैरानी होगी कि 216 लोगों की मौत मामले में हुई जांच की रिपोर्ट आज 16 साल बाद भी सार्वजनिक नहीं हो सकी है। साल 2008 में राजस्थान में कांग्रेस की सरकार थी और अशोक गहलोत मुख्यमंत्री थे। 30 सितंबर को हुई इस दुर्घटना के बाद दो अक्तूबर को सरकार ने जस्टिस जसराज चोपड़ा की अध्यक्षता में एक न्यायिक जांच आयोग का गठन किया। जांच आयोग ने करीब ढाई साल बाद अपनी रिपोर्ट राज्य सरकार को सौंप दी। लेकिन जब रिपोर्ट सौंपी गई कि तब राज्य में भाजपा की सरकार थी। कहा जाता है कि सरकार ने उस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया और इस घटना के पीड़ितों के परिवारजन न्याय पाने के लिए दर-दर भटक रहे हैं।
इसी साल मई में राजस्थान हाईकोर्ट खंडपीठ में जोधपुर के मेहरानगढ दुखांतिका को लेकर चोपड़ा आयोग की रिपोर्ट एवं दो कैबिनेट उप समितियों की रिपोर्ट को पेश किया गया था। इस दौरान महाधिवक्ता राजेन्द्र प्रसाद ने कहा, अब इस मामले को 16 साल हो चुके हैं। इसीलिए सामाजिक सद्भाव और शांति-व्यवस्था को देखते हुए इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं करना चाहिए। इस पर याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि पूरी रिपोर्ट को राज्य सरकार को सार्वजनिक करना चाहिए थी पर ऐसा हुआ नहीं ।

अब प्रयागराज में कुम्भ का मेला लग रहा है । करीबन 50 करोड़ श्रध्हालूओं के आने की संभावना जताई जा रही है । सरकार को पूर्व हादसों से सबक लेकर चक चोबंध रहने की तरुरत है ।पूजा स्थल हों या फिर सत्संग, प्रवचनों में उमडऩे वाली भीड़, जब-जब भी भगदड़ मचने से लोगों की जानें गई हैं या फिर बड़ी संख्या में लोग घायल हुए हैं तो एक ही बात सामने आती है कि भीड़ प्रबंधन उपायों की अनदेखी की गई। धार्मिक कार्यक्रमों में आस्था के अतिरेक में भी कई बार सुरक्षा उपायों की अनदेखी होती है। भारी भीड़ के नियंत्रण के लिए समुचित बंदोबस्त न होना तो अलग बात है, कई बार समुचित इंतजाम होने पर भी कोई छोटी सी अफवाह लोगों में भगदड़ का कारण बन जाती है। सबसे बड़ी बात यह है कि आए दिन होने वाले ऐसे हादसों से सबक लेने के प्रयास समय रहते हो ही नहीं पाते। ऐसा करने पर हादसों को रोका जा सकता है।भीड़ का अनुमान लगाकर उसी के अनुरूप बंदोबस्त न होना ही तिरुपति मंदिर जैसे हादसों की बड़ी वजह बनता है।

तकनीक के दौर में भीड़ प्रबंधन बहुत मुश्किल काम नहीं है। धार्मिक स्थल हों या फिर धार्मिक-सामाजिक आयोजन, प्रशासन के लिए भीड़ का अनुमान लगाना कठिन काम नहीं है। सीसीटीवी कैमरों के अलावा सैटेलाइट से भी भीड़ का अंदाजा लगाना आसान है। क्षमता से अधिक लोगों के एकत्र होने या कतारों के ज्यादा लंबी होने से रोका जाना चाहिए। बारी की लंबी प्रतीक्षा से भी कई बार श्रद्धालु धैर्य खो सकते हैं। भीड़ प्रबंधन के साथ यदि लोग स्व अनुशासन पर ध्यान दें, तो ऐसे हादसों से बचा जा सकता है।

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