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Monday, September 15, 2025

चौकी के गेट पर पिटाई, कानून का चीरहरण और तंत्र की चुप्पी

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फर्रुखाबाद के कर्नलगंज पुलिस चौकी के गेट पर खुलेआम एक युवक की डंडों से हुई बर्बर पिटाई का वीडियो सोशल मीडिया पर सामने आना सिर्फ एक घटना नहीं है, यह हमारी पुलिस व्यवस्था, कानून के राज और प्रशासनिक जवाबदेही की गहराई से पड़ताल करने का एक गंभीर अवसर भी है।

जिस स्थान पर आम जनता को सबसे ज्यादा सुरक्षा की उम्मीद होती है – वह है पुलिस चौकी। लेकिन जब उसी पुलिस चौकी के गेट पर अपराधी निर्भय होकर लाठी-डंडों से किसी की पिटाई करते हैं और पुलिसकर्मी मूकदर्शक बने खड़े रहते हैं, तो यह सिर्फ एक व्यक्ति पर हमला नहीं होता, यह समाज के न्यायिक ढांचे पर हमला होता है। यह घटना न केवल कानून-व्यवस्था के लिए शर्मनाक है, बल्कि जनविश्वास के लिए भी गहरी चोट है।

कानून का सबसे पहला उद्देश्य है –

भय का निर्माण और न्याय का भरोसा। लेकिन जब अपराधी खुद को कानून से ऊपर समझने लगें, और वह भी पुलिस चौकी जैसे सार्वजनिक स्थान पर, तो यह दर्शाता है कि तंत्र में कहीं गहरी सड़न है। कर्नलगंज की यह घटना उस सड़न की महज एक परत को उजागर करती है। यह चौकी क्या अब अपराधियों की शरणस्थली बन गई है? सवाल उठना लाज़मी है।

यह कोई पहली घटना नहीं है जब किसी पुलिस चौकी पर उंगलियां उठीं हों। लेकिन जो दृश्य इस बार सामने आया है, वह सीधे-सीधे तंत्र की निष्क्रियता, जिम्मेदारों की निष्कपटता और अपराधियों के मनोबल में बेतहाशा बढ़ोतरी को दर्शाता है।
वायरल वीडियो में जो दृश्य सबसे अधिक शर्मनाक है वह यह कि एक होमगार्ड सब कुछ देख रहा है, लेकिन न तो वह हस्तक्षेप करता है और न ही किसी पुलिसकर्मी को बुलाता है। ऐसा प्रतीत होता है मानो उसे निर्देश मिला हो कि “कुछ मत करना।” क्या यह निष्क्रियता किसी भय का परिणाम है, या मिलीभगत का?

स्थानीय लोगों ने चौकी इंचार्ज पर भी गंभीर आरोप लगाए हैं – रात में शराबियों की महफिलें सजवाना, दबंगों को संरक्षण देना और अवैध वसूली जैसे आरोप अगर सही हैं तो यह पुलिस महकमे के ऊपर सबसे बड़ा धब्बा है। ऐसी कार्यप्रणाली न सिर्फ पुलिस की साख पर सवाल खड़े करती है, बल्कि पूरे जिले की कानून व्यवस्था की सच्चाई को उजागर करती है।

इस तरह की घटनाएं प्रशासन और पुलिस पर जनता के भरोसे को तोड़ने का काम करती हैं। एक आम नागरिक अपने अधिकारों और सुरक्षा की गारंटी के लिए राज्य पर निर्भर रहता है। लेकिन जब चौकी, जो पुलिस की प्राथमिक इकाई होती है, वहां अपराधियों का राज हो जाए तो आम आदमी कहां जाएगा? यह एक खतरनाक संकेत है जो लोकतंत्र की जड़ों को खोखला करता है।

अब प्रश्न उठता है प्रशासन की भूमिका पर। क्या प्रशासन इस वीडियो को सिर्फ ‘एक और वायरल वीडियो’ समझ कर फाइलों में बंद कर देगा? या क्या इस बार वास्तव में दोषियों के खिलाफ ठोस कार्रवाई की जाएगी? यह जनता की नज़र में प्रशासन की साख को तय करेगा।

जिला स्तर पर एसपी और डीएम को इस तरह की घटनाओं पर त्वरित कार्रवाई करनी चाहिए। पुलिस की छवि को सुधारने के लिए कड़े निर्णय, निलंबन, और जांच अनिवार्य हैं। चौकी इंचार्ज से लेकर नीचे तक, सभी की जवाबदेही सुनिश्चित की जानी चाहिए।

इस घटना को उजागर करने में मीडिया की भूमिका सराहनीय है। अगर यह वीडियो वायरल न होता, तो संभव है कि यह घटना भी दबा दी जाती। अब जिम्मेदारी मीडिया की है कि वह इस मामले को केवल ‘खबर’ बनाकर न छोड़े, बल्कि इसे एक अभियान बनाए ताकि ऐसे चौकियों और चौकीदारों पर नकेल कसी जा सके जो कानून को ताक पर रख चुके हैं।
क्या होना चाहिए आगे?

स्वतंत्र जांच समिति का गठन: कर्नलगंज चौकी की कार्यप्रणाली और इस घटना में लापरवाही की निष्पक्ष जांच हो।चौकी

इंचार्ज का निलंबन: जब तक जांच पूरी न हो जाए, चौकी इंचार्ज को सेवा से निलंबित किया जाए।

होमगार्ड की जवाबदेही: मूकदर्शक बने होमगार्ड से जवाब मांगा जाए – आखिर उसने हस्तक्षेप क्यों नहीं किया?

पुलिसकर्मियों की नियमित समीक्षा: सभी चौकियों पर तैनात पुलिसकर्मियों के व्यवहार, कार्यप्रणाली और कार्यशैली की हर 6 माह में समीक्षा की जाए।जन संवाद कार्यक्रम: पुलिस और जनता के बीच विश्वास बहाल करने के लिए प्रत्येक क्षेत्र में जनसंवाद शिविर लगाए जाएं, जहां आम लोग अपनी शिकायतें सीधे उच्च अधिकारियों तक पहुँचा सकें।

सीसीटीवी और निगरानी तंत्र सुदृढ़ हो: चौकियों पर 24×7 सीसीटीवी की निगरानी होनी चाहिए और उसका लाइव फीड उच्च कार्यालयों तक पहुँचना चाहिए।

कानून व्यवस्था लोकतंत्र की रीढ़ होती है। अगर रीढ़ ही कमजोर हो जाए, तो पूरा ढांचा ढह जाता है। कर्नलगंज की यह घटना सिर्फ एक युवक की पिटाई नहीं है, यह एक व्यवस्था की पिटाई है। अगर समय रहते इस पर कार्रवाई नहीं की गई, तो यह स्थिति पूरे समाज में भय और अराजकता का माहौल पैदा कर सकती है।

प्रशासन और पुलिस को यह समझना होगा कि जनता का डरना लोकतंत्र की हार है, और अपराधी का निर्भीक होना, राज्य की नाकामी का प्रमाण। अब फैसला उन हाथों में है, जिनके पास व्यवस्था सुधारने की शक्ति है – सवाल ये है कि वे हाथ अब भी सक्रिय हैं या फिर सिर्फ हस्ताक्षर करने के लिए ही रह गए है।

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